राजनारायण बोहरे और मित्रो की कहानियाँ

मेरे बारे में

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I m a Hindi story writer. Who started writing in eighties.I write literary stories, mostly fiction and short stories. I am not interested in any political or issue based topics and I do not write on such topics. मैं आठवें दशक में अपना लेखन आरंभ करने वाला हिन्दी कहानी लेखक हूं। किन्ही अजीबोगरीब प्रयोगों और आन्दोलनों में मैं दिलचस्पी नहीं रखता और उन्हे आदर्श व उचित नहीं मानता। लोकप्रिय किन्तु साहित्यिक लेखन मेरा उद्देश्य है।

बुधवार, 9 जुलाई 2014

सुलक्षणा ए असफल








                                                                                   सुलक्षणा
                                                                                 

असफल

               वे कई दिनों से नहीं मिली थीं।
मन ही मन पुकार रहा था, शायद! शाम ढलने के बाद जब मैस के लिए निकल रहा था,  अचानक हंसती-मुस्कराती सामने खड़ी हुईं।... दिल उन्हें पाते ही जोर-जोर से उछलने लगा।
               कहां जा रहे हो, जितेन!’ उन्होंने मीठे स्वर में पूछा!
               खाने के लिए....’ मैं मुस्कराया।
               चलो, आज कहीं बाहर चलते हैं, वहीं खा-पी लेंगे।उन्होंने अधिकारपूर्वक कहा।
दिल की धक्धक् और तेज हो गई। सौभाग्य ओरछोर बरस रहा था। मदहोश-सा मैं उनके क़दम से क़दम मिला कर चल पड़ा... फिर कब हमने ऑटो लिया और कबफेमिली हट्जपहुंच गए, जैसे- पता नहीं चला।    
               अपने शहर से बी.एस-सी. करके यहां साइकोलॉजी में एम.. करने आया था। वे यदाकदा मैट्रो में मिल जाती थीं। जाने क्या जादू था उस चितवन में कि मैं दो-तीन दिन तक भुला नहीं पाता। पर पूछ भी नहीं पाता कि आप आगे कहां तक जाती हैं, कहां काम करती हैं- मिस?
               दिल हरदम एक मिठास से भरा रहता। वे अतिशय प्रिय लगतीं। सम्माननीय और संभ्रांत भी। उनके बगल में बैठने की हिम्मत पड़ती, बात करने की। वहां वे अक्सर अपना बैग, छतरी या कोई पुस्तक रख लेती थीं।
               पर एक दिन मुझे उनके सामने ही गैलरी में खड़ा होना पड़ा तो उन्होंने अपने चेहरे से लट हटा कर सीट से बैग उठाते हुए धीरे से कहा, ‘बैठ जाइये... खाली है।
               शायद, वह शुरूआत थी। देर तक उनकी मीठी आवाज और किंचित किंतु मोहक मुस्कान मेरी चेतना पर छाई रही। मुझे अपने स्टेशन का ख्याल ही नहीं रहा। वे जब उतरने लगीं तब चौंका। पर कम से कम यह जान गया कि वे यहां तक आती हैं!
हमेशा बौद्धिक बातें करतीं। बात करते-करते एक दिन उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें तुम्हारे इस पारंपरिक नाम के वजाय सिर्फ जितेन कहं- तो बुरा तो नहीं मानोगे।
               कुछ दिनों बाद शहर में फिल्म महोत्सव चल रहा था। एक दिन अचानक मेरी नज़र पड़ी- वे एक तगड़े-से आदमी के साथ मेरे पीछे वाली लाइन में बैठी थीं! फिर मुझे पता नहीं चला कि हॉल में कौन-सी फिल्म चली और उसकी कहानी क्या थी?
मैं साइकोलॉजी में एम.. कर रहा था... मुझे अपनी बुद्धि पर तरस रहा था।  
               तब वह बरस ऐसे ही चुपचाप बीत गया। दिल की चोट भुला कर मैंने पढ़ाई में चित्त दे लिया। मैंने अपना रिजल्ट बिगड़ने से बचा लिया।
               पर अगले सत्र की शुरूआत में एक शाम वे दोनों फिर एक थियेटर में मिल गए मुझे! उनकी मांग में सिंदूर की हल्की टिपकी और भंवो के बीच लाल बिंदी देख कर मैं इतना आहत हुआ कि नाटक बीच में छोड़ कर चल दिया। वे पीछा करती हुई गैलरी तक र्गइं। और बेहाल-सी पुकारने लगीं-
               जितेन... जितेन... सुनो-तो, इतने दिनों से कहां थे तुम...’
               मैंने पलट कर देखा- उनके चेहरे पर चमक पर आंखों और आवाज में बला की घबराहट थी। जैसे, वे सिर्फ मुझी को चाहती हों! मुझे ही ढूंढ़ रही हों... और अब बिछुड़ जाने की आशंका से व्याकुल हिरणी की भांति छटपटा रही हों!
               मेरे मुंह से कोई बोल नहीं फूटा। आंखों में आंसू उमड़ आए थे। तब वे पहली बार मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोलीं, ‘अच्छा-ठीक है, तुम्हारा मन खराब है... चले जाओ अभी, लेकिन कल मैं तुमसे मिलना चाहूंगी।
               और उनकी ओर देखे बगैर पॉकेट से अपना एड्रेस कार्ड निकाल कर उनके हाथ पर रख कर मैं भागता-सा चला आया। अगले दिन जानबूझ कर दिन भर अपने कमरे पर नहीं रहा। जू में भटका और जानवरों में उन्हें तलाश करता फिरा। घड़ियाल के आंसुओं की तुलना में मुझे उनके आंसू मिले... तेंदुओं के धब्बे चीतों और बाघों तक आते-आते धारियों में बदल गए थेे, पर उनके बीज बिल्लियों में मौजूद हैं... यह मैं जान गया था। शाम को जैसे ही गेट खोला नज़र देहरी से चिपक कर रह गई। वहां एक फोल्ड किया हुआ कागज पड़ा था, जिस पर लिखा था- ‘तुम्हारी, सु
               दिल सहसा ही धड़कने लगा।
             सुबह देर से हुई। और तब एक व्यथित हृदय मुझे फिर उनके पास ले जा पहुंचा।
               उन्हें जैसे, खबर थी, मैं पहुंचूंगा! वे पहले ही आधे दिन की छुट्टी की अरजी दे चुकी    थीं। मुझे एक गिलास पानी पिला कर बोलीं, ‘कॉफी पिओगे?’
               इन दिनों में तो मुझे कोक पसंद है।मैंने भी अपनी ओर से सहजता का परिचय दिया। वे मुस्करा कर अपना बैग कंधे पर डाल कर क़दम से क़दम मिला उठीं।
               मैंने कनखियों से देखा- मांग में सिंदूर की टिपकी, माथे पर बिंदी। क्रीम कलर के सलवार सूट और उससे मैच करती जूतियों में वे फिर एवरग्रीन नज़र रही थीं। कुछेक मिनट बाद हम अशोक वृक्षों से भरे बगीचे में पहुंच गए। एक साफसुथरी बैंच की ओर उन्होंने इशारा किया और हम एक साथ बढ़ कर उसी पर बैठ गए।
और मैं अभी भी इधर-उधर देखने का यत्न कर रहा था, जबकि वे खासतौर से मुझी से नज़रें मिलाना चाहती थीं! आखिरकार मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से बोलीं, ‘देखो- बसंत गया!’
               तब चिहुंक कर मैंने धीरे से अपना हाथ छुडा लिया।
               वे मेरे पति हैं, जितेन!’ उन्होंने समझाने की कोशिश की।
               जानता हूं!’ मैंने खीजे हुए स्वर में कहा। जैसे पहले से भरा बैठा था।
               सहसा वे नर्वस हो र्गइंं। बेचारगी के साथ बोलीं, ‘इसका मतलब यह कि अब मेरे लिए सारे रास्ते बंद हो गए...!’
मैं बोला नहीं।  हमलोग चुपचाप उठ गए। मैंने कोक मांगा उन्होंने कॉफी पिलाई।
और मैं जानता था कि इस साल मुझे 60 परसेंट तक गाड़ी खींचनी थी। आउट ऑफ 55 परसेंट नहीं बनी तो पी.एच-डी. धरी रह जाएगी। ...लेकिन मेरा मन उन्होंने चुरा लिया था।
हार कर मैं फिर से मैट्रो रूट से अपने कॉलेज जाने लगा। और वे कई दिन तक नहीं मिलीं तो एक दिन धड़कते दिल से उनके दफ्तर भी पहुंच गया।
पता चला वे रिजाइन कर गई हैं!
अब उनका चेहरा मेरे इर्द-गिर्द घूम रहा था। वे तो जैसे इस महानगरीय जनसमुद्र में बंूद की तरह विलीन हो गई थीं।
मैं बार-बार पछताता मैंने ख्वामख्वाह वियोग का वरण कर अपना जीवन नर्क बना लिया। कैरियर गड्ढे में धकेल दिया। आज मैं समझ सकता हूं कि किसी के साथ विवाह हो जाने से आत्मा रहन नहीं हो जाती। मन को कोई बांध नहीं सकता... हम कितने मूर्ख हैं! जीवन अस्थाई है और फेरे डाल कर स्वामित्व का भरम पालते हैं। एक गतिशील देह को अपने अधिकार में लेकर जड़ कर देना चाहते हैं। जैसे- यह भी कोई नदी हो!
सहसा एक दिन रेडियो एफ.एम. पर मुझे उनका मोहक स्वर फिर सुनाई पड़ा! डूबते दिल को जैसे सहारा मिल गया।... अगले दिन मैं सीधा रेडियो स्टेशन पहुंच गया। पता चला, वे कैजुअल आर्टिस्ट हैं। स्टूडियो से निकलने में उन्हें एक घंटे की देर थी।
अभी मैं पारदर्शी वेटिंगरूम में बैठा ही था कि वे सहसा स्टूडियो का गेट खोल कर चौड़ी गैलरी में गईं! उन्हें अरसे बाद इतने करीब देख कर मेरा दिल हलक में आने लगा। सोफे से उठ कर मैंने शीशे का दरवाजा खोला और गैलरी में उनके पीछे-पीछे चलने लगा। जैसे- कोई दूध पीता शिशु अपनी मां के! एकदम बेहाल और पनीली आंखें लिए।... मगर वे घूम कर प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव्ह के कमरे में घुस गईं। मैं दरवान की तरह बाहर खड़ा रह गया।
भीतर ही भीतर रोने लगा। कि- अब मैं कभी उनसे मिल नहीं सकूंगा। मैंने उन्हें हमेशा के लिए खो दिया है।...
तभी अचानक चमत्कार की भांति उनकी मीठी आवाज ने एक बार फिर चौंका दिया मुझे, ‘जितेन-तुम!’
मेरे मुंह से केवल हवा निकल कर रह गई।
तुम यहां!’ खुशी उनकी आंखों में सिमट आई थी।
मैं आपकी प्रतीक्षा...’ आगे शब्द नहीं जुड़े, मैंने भर्राए कण्ठ से कहा।
ओह- जितेन...’ उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया और हम एक ऑटो मैं बैठ गए।
रास्ते भर मैं सिर्फ रोता रहा और वे मेरे सुन्न पड़ गए हाथों को अपनी गर्म हथेलियों से सहलाती रहीं। उन्हें मेरा पता कंठस्थ था। वे ऑटो वहीं ले आईं। किराया भी उन्होंने ही चुकाया। मैंने उतर कर सिर्फ अपना रूम खोला। मैं अभी सहज नहीं था। मुझे यकीन नहीं रहा था कि वे मिल गई हैं।... लेकिन इस तरह दूर-दूर और बतियाए बगैर भी हम उस कमरे में ज्यादा देर नहीं बैठ सकते थे। इस बात का ख्याल मुझे भी था और उन्हें भी। जल्द ही हम फिर से ताला लगा कर बाहर गए। बिछुड़ना अब पहले से अधिक दुश्कर लग रहा था। जब में उन्हें ऑटो में बिठा रहा था तब उन्होंने लगभग पुकार कर कहा था, ‘जितेन... अब हम कब मिलेंगे!’
मुझसे बोला नहीं गया। उनकी आंखों की तड़प मेरे हृदय में उतर आई थी। मैंने इतना असहाय खुद को कभी नहीं पाया। ...मगर इसके बावजूद उस शाम मेरा दिल इतने गहरे आत्म विश्वास से भर गया कि मैं एक उम्दा गीत गुनगुनाता हुआ अपने कमरे पर लौटा। मेरा हृदय सचमुच एक सच्ची प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भर गया था
दोनों वक्त मैस जाने लगा। स्वास्थ्य पहले की तरह हरा-भरा हो गया। परीक्षा के लिए मैंने फिर कमर कस ली... मुझे लगने लगा कि सबकुछ पढ़ा हुआ है- डिवीजन आसानी से बन जाएगी। तैयारी के कारण अब मैं कमरे से प्रायः कम निकलता था। जिन दिनों दुपहर में ड्यूटी होती, वे रेडियो से लौट कर मेरे कमरे पर होती हुई अपने घर जातीं। एक प्लेटोनिक ऊर्जा सदैव आसपास मंडराती रहती जिसकी रौशनी में मेरी पढ़ाई परवान चढ़ रही थी।
पर उस दिन अचानक वे रात दस बजे के बाद रेडियो से लौटीं, कहने लगीं, ‘मुझे बहुत तेज भूख लग रही है-जितेन! सिलेण्डर आज नाश्ते में ही बोल गया था। तुम चल कर स्टोव में चार पंप कर दो तो खाना बनालूं!’
आपके घर!’ मैं उत्साह में मुस्कराया।
हां!’ उन्होंने पलकें झपकाईं, पुतलियां चमक रही थीं।
मैं फटाफट तैयार हो गया। ऑटो उन्होंने छोड़ा नहीं था, हम उसी में बैठ कर आगे बढ़ गए। ...रास्ते भर में उनके घर के नक्शे में उलझा रहा।
               मगर हकीकत में हम एक बार फिर फेमिली हट्ज के लॉन में खड़े थे! एक गहर्रे िडप्रेशन से उबर कर सामान्यतः मैं मुस्कराने लगा। इस क्षण किसी भी कोण से विवाहित नहीं लग रही थीं वे। फूल-सी हल्की, सुंदर और वैसी ही सुवासित। मेरा हृदय, शायद उनके हृदय से मिलने के लिए एक बार फिर मचलने लगा था।...
और तब जिस नशे के आलम में मैंने उनकी आंखों में आंखें डाल कर सिर्फ उन्हीं को याद करते हुए चुपचाप खाना खाया, उसी की डोर पकड़ कर वे मेरे दिल में उतर्र आइं। खाने के बाद मैंने घड़ी देखी और उदास हो गया-
               एक बजने को है, तुम्हारे हस्बेंड चिंता करते होंगे-सु!’
               वे मुझे गौर से देख रही थीं, मंद-मंद मुस्काने लगीं। फिर आंखों में एक अजीब-सी कशिश लिए बोलीं, ‘मुझे लग रहा था- आज तुम जाने नहीं दोगे!’
               ओह! मैं यकायक झनझना गया। और मैंने कुछ कहना चाहा, पर मेरा गला फंसने लगा। उन्हें रोक पाना इस जिंदगी में संभव नहीं था।...
               तुमने बहुत जल्दी करली, सु!’ मैंने रुंधे गले से कहा।
               वे चकरा गईं। फिर अर्थ समझ कर उनकी आंखों के किनारे भीग गए। और दो क्षण बाद फंसी-फंसी-सी आवाज में बोलीं, ‘उन्होंने मुझे अब तक पाया कहां-जितेन! वे टूर के बहाने हफ्ते-दो हफ्ते में हमेशा भाग खड़े होते हैं...’
               मैं यकायक चेहरा ताकने लगा। पर वे आगे नहीं बोलीं, एक निश्वास छोड़ कर रह र्गइं।

               ...अब मैं उनके खालीपन को, डिप्रेशन को और कुंठा को समझ सकता था।... धीरे-धीरे नर्वस होने लगा। यह जानते हुए भी कि- उनकी आंखें में अब एक जंगी तूफान मचल उठा है।

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