राजनारायण बोहरे और मित्रो की कहानियाँ

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I m a Hindi story writer. Who started writing in eighties.I write literary stories, mostly fiction and short stories. I am not interested in any political or issue based topics and I do not write on such topics. मैं आठवें दशक में अपना लेखन आरंभ करने वाला हिन्दी कहानी लेखक हूं। किन्ही अजीबोगरीब प्रयोगों और आन्दोलनों में मैं दिलचस्पी नहीं रखता और उन्हे आदर्श व उचित नहीं मानता। लोकप्रिय किन्तु साहित्यिक लेखन मेरा उद्देश्य है।

बुधवार, 9 जुलाई 2014

राजेन्द्र लहरिया की कहानी- यहाँ कुछ लोग थे



राजेन्द्र लहरिया की कहानी-

यहाँ कुछ लोग थे
   
    देखिए साहब ये...लेकिन इससे पहले मैं आपको यह बताना ज़रूरी समझता हूँ कि इस जगह का एक लंबा किस्सा है....जी हाँ साहब, इन मूर्तियों-मंदिरोें को यदि आप अलग-अलग करके देखेंगे, तो ये आपके लिए सिर्फ बेजान पत्थर ही साबित होंगे, किंतु आप यदि इनके साथ जुड़ी कहानी से रू-ब-रू हो लेंगे तो....वैसे मैं सोचता हूँ-यदि आप निकले ही हैं तो वह सब आपको जानना ही चाहिए! खैर, यह तो रही मेरी बात। पर यह तो आपको ही तय करना है कि यह सब आपको देखना-भर है या सारा-कुछ जानना भी....ऐं ? पूरा किस्सा जानना चाहेंगे ? ..... बहुत अच्छा साहब, यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई है साहब, कि आप इस विषय में इतनी रूचि रखते हैं। मैं आपसे वादा करता हूँ कि आपको बोरियत नहीं होने पाएगी। आपको यह मालूम नहीं है साहब, कि जिस दिन पहली बार मैंने इस जगह की कहानी सुनी थी उस दिन मेरे शरीर में कई बार रोमांच हो उठाा था। अब तो मैं खुद गाइड हूँ-लोगों को कई बार सुना चुका हूँ।....खैर, आप मेरे पीछे-पीछे आइए। आपको सब कुछ बताऊँगा मैं। फिर भी कहीं कोई शंका या जिज्ञासा हो तो तुरंत मुझसे पूछ लीजिएगा...
    सबसे पहले इसे देखिए साहब, यह मूर्ति! (छड़ी से एक मूर्ति की तरफ इंगित करके) ...दूर से और मोटी नज़र से देखने पर आप इसे नहीं समझ सकेंगे, इसलिए जरा गौर से देखिए!...यों देखने पर यह आकृति किसी ऋषि मुनि या संत-महात्मका की लगती है।..शरीर पर वह अली! गोमुखी के भीतर माला फेरता हाथ! लंबे केश! दाढ़ी! ...किंतु चेहरा ? चेहरे को गौर से देखिए साहब.....(छड़ी से मूर्ति के चेहरे पर टकोरते हुए) ... देखिए ये ऑंखें! क्या लगता है इन्हें देखकर आपको ? खौफ़ पैदा करती हैं ना ये खूँखार ऑंखें ? .... और चेहरे के यह खाल ? .... पेड़ की छाल की तरह रूखी और खुरदुरी! ...यह मुँह देख रहे हैं        आप ? जानते हैं क्या है इसके भतीर?....नर-मांस!...और यह होंठों के दोनों किनारों से क्या  बह रहा है-देख रहे हैं ? ....रक्त! ...मानव-रक्त! जी हाँ साहब, आदमी का खून!...हैरत में न पड़िए आप!
    जी?......जी नहीं, यह मैं भी नहीं जानता कि कौन हैं ये और नाम क्या है इनका।...जो कुछ मैं जानता हूँ इनके बारे में, वह यह है कि अभी यहाँ एक गाँव था और उसमें कुछ भोले भाले लोग रहते थे। एक दिन गाँव में ये न जाने कैसे प्रकट हुए कि इन्हें देखकर लोग चमत्कृत हो उठे। इनके तेज के सामने किसी की निगाह न ठहरती थी, सो सब लोग इनके चरणों में गिर पड़े और बोले, बाबा! हम पै किरपा कीजिए बाबा! ''बस, उस दिन से ये गाँव में जम गए और धीरे-धीरे दुनिया जहान में ''बाबा'' नाम से ही सिध्द और प्रसिध्द हो गए। इसलिए अभी मैं भी इन्हें बाबा ही कहूँ।
    ...बाबा ने गाँववालों के भीतर जड़े जमा ली थीं। ..एक दिन उन्होंने लोगों से कहा कि यहाँ एक मन्दिर होना चाहिए। बाबा के मुँह से यह सुनना था साहब, कि लोग जी-जान से जुट गए मंदिर उठाने में। (एक तरफ को छड़ी से इशारा करते हुए) देखिए....यह सामने जो मंदिर है, वही है! इसमें आपके देखने के लिए कोई खास चीज नहीं है। लेकिन साहब, यही वह मंदिर है, जिसके कारण बाबा की ख्याति पंछी दूर-दूर तक उड़ने लगे थे और दूर-दूराज के लोगों की आवाजाही रहने लगी थी यहाँ। लोगों को अज़ब सुकून मिलता था यहाँ आकर। वे यहाँ घंटों बैठते-उठते और लौटते वक्त बाबाा के चरण छूकर, उनका वरदहस्त देखकर खुशी से भरे-भरे घर जाते।
    ...एक दिन बाबा ने मंदिर के निकट एक कुइया (छोटा कुऑं) की जरूरत लोगों को बताई। पानी नदी से लाना पड़ता था उन्हें। नदी आज भी बहती है पीछे....(छड़ी से इशारा करके)...उस तरफ! .... और साहब, लोगों ने कुइया खोदनी शुरू की तो तब ही दम लिया, जब तली में पानी के पतले-पतले सोते फूट निकले। कुछ ही दिनों में कुइया पक्की बन गई। उसे बनाने वाले वे ही लोग थे जिन्होंने मंदिर बनाया था- वे ही कारीगर, वे ही मजूद-बेलदार्!.. वह रही कुइया! (छड़ी ने काई-खाई जगत वाली कुइया की तरफ इशारा किया।)
    ....और यह बाग देंख रहे हैं आप ? यह बाबा का ही रोपा हुआ है ! न जाने कहाँ-कहाँ से आम, अमरूद, नींबू, केला, अनार और शहतूत के गाछ और तरह-तरह के फूल-पौधे लाए थे बाबा। अरे साहब, बाग देखकर लोगों का मन रम जाता था यहाँ!....अब वे फूल-पौधे नहीं रहे। ठूँठ और रूखे पेड़ खड़े रह गए हैं, जिन्हें आप देख रहे ंहैं! ....
    ....और साहब, बाबा के सिर और दाढ़ी के काले केशों में समय ने धीरे-धीरे सफेद लकीरों से अपेन हस्ताक्षर कर दिए। अब तक बाबा केक शिष्यों का संसार दसों दिशाओं में फैल चुका था। साधु-गृहस्थ, गरीब-अमीर, दु:खी-सुखी, सुपढ़-कुपढ़, रोगी-नीरोगी, दाता-भिखारी- न जाने कितनी तरह के लोग बाबा के चरणों में आते और अपने दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से मुक्त इच्छा पूर्ण हुए लौट जाते। सुनते हैं बाबा ''सिध्द'' हो गए थे और मनुष्य की हर तरह की समस्याओं का समाधान उनके पास था। लोगों का भी उन पर दृढ़ विश्वास।...ऐसे ही लोगों में से एक थे गाँव के रामदीन पंडित, जिनके ऊपर दैव-दंड गिरा था। हाँ साहब, उसे दैव का दंड ही कहना पडेग़ा।...हुआ यह कि उनका जवान बेटा ब्याह कर बहू के साथ घर आया। आते ही ऐसा बीमार हुआ कि घंटे-दो घंटे में ही चल बसा और घर को खुशियों की जगह कोहराम से भर गया। ...पढ़ी-लिखी बहू तो हक्की-बक्की रह गई। उसकी ऑंख से न ऑंसू निकला, न जबान से बोल। उसके जी पर क्या गुज़री होगी साहब, यह तो र्को क्या जाने।....और बात यहीं तक रहती तो भी खैरियत थी, पर जहाँ सिर मुँड़ाते ओले पड़े, वहाँ खैरियत कहाँ।
    गाँव में ही एक थे मास्टर सुभाषचन्द्र, जैसे ऍंधेरे दालान में जलता एक दीया ! जैसे कोलाहल के बीच एक सार्थक शब्द ! वे एक दिन रामदीन पंडित के घर गए और उन्हें समझाने लगे, 'पंडितजी, रामेसुर तो चला ही गया, जो होना था सो हुआ। पर अब बिसेसुर तो है। बहू और बिसेसुर की उमर में फरक भी ज्यादा न होगा। चाहो तो बहू को बिसेसुर के संग जोड़ बिठा दो ! ... रामेसुर के संग सात फेरे ही तो पड़े हैं ! और तो कुछ भी नहीं हुआ ! ... आप खुद ही सोचें कि पहाड़-सी जिन्दगी कैसे काटेगी यह बेचारी !''
    पंडित जी के जेहन में भर गई सुभाषचन्द्र की बात, किंतु उन्होंने जबाब में कुछ नहीं कहा उक्त वक्त ! बाद में बात चलाई घर में। कानाफूसी हुई। बहू के मन की ली गई। बहू चुप रही। औरतों ने समझ लिया और कह दिया, ''बहू राज़ी है'
    सुनकर प्रसन्नताा के मारे रामदीन का क्षण्-भर को रोम-रोम पुलक उठा, जैसे दूसरी देह धरकर रामेसुर दूल्हा बनकर उनके सामने आ खड़ा हुआ हो ! किंतु अगले ही क्षण वे सोच में डूब गए-बहू राज़ी है, सो तो ठीक है, पर यह कोई साधारण बात नहीं है! ब्याह संस्कार   शोधने-विचारने के बाद होते हैं! और फिर हम कोई चमरा-कुरिया तो हैं नहीं! ...बाबा से पूछकर करेंगे जो कुछ करना है ! .....
    और वह पहुँचे थे बाबा के पास !
         बाबा की त्यौरी चढ़ गई थी यह सुनकर, ''कैसी बात करते हो रामदीन ? अनर्थ हो जाएगा। जिसके संग सात फेरे पड़ने पर तुम्हारा पहला बेटा मर गया, उसके संग दूसरा भी न बचेगा।'
         सुनकर काँप गए रामदीन-भीतर तक।
    ''वह तो अभागिन हैं रामदीन ! ....पापिन ! ''बाबा ने आगे कहा था, ''पूरव-जनम में कोई गहन पाप किया है उसने ....जिसकी ऑंखों के सामने पति मर गया, वह पापिन नहीं तो क्या है ? .....पाप-शांति के लिए उसे तो पति के संग ही देह-त्याग करना चाहिए था! ...नहीं तो अब उसे भगवान का भजन करना चाहिए ! ....और कोई उपाय नहीं है।
    रामदीन लौटकर घर आए और उन्होंने साफ कह दिया था, ''बहू का छोटे के संग सम्बन्ध कभी न होगा! ....बहू को तो अब भगवान का भजन करना चाहिए-यही एक उपाय है।''
    सुनकर बहू ज़ार-ज़ार रोई थी और जब तक वहाँ रही थी साहब, उसकी ऑंख से ऑंसू न रूका था।
    पंडितजी को बहू अब असगुन-सी लगती थी...और एक दिन पंडिताइन ने बहू के पास जाकर कहा था, ''बहू चलो बाबा के दरसन कर आएँ।''
    बेमन के बावजूद बहू ने सास का कहा टालना उचित न समझा। और साहब, जब उसने बाबा को देखा तो उनके चरणों में ऐसे बिसूर-बिसूरकर रोई, जैसे कोई मासूम बेटी बाप को अपनी व्यथा सुना रही हो-हिलकियाँ ले-लेकर !
    बाबा ने उससे कहा था, ''तेरे भागय में यही था। कोई क्या कर सकता है। ...क्या नाम है तेरा बेटी ?
    ऑंसू-डूबी ऑंखे पूंछती बहू ने धीरे से कहा था, ''मीना-..मीनाक्षी।''
    बाबा ने तत्काल कहा था, ''मीना नहीं ........मीरा....मीरा दासी ! ...आज तेरा दूसरा जनम हो गया बेटी! आज से तू मीरा दासी है...यहाँ भगवत की सेवा कर! अबअ वही तेरा पति है! जगत्पति !''
    मीनाक्षी कुछ न समझी। भगवान उसका पति कैसे हो सकता है ? ...पर साहब, यही होना था ! पंडिताइन पहले ही जा चुकी थीं बहू को वहाँ छोड़कर ! और मीनाक्षी भगवान की होकरर रह गई। दुल्हन से साधुन ! मीनाक्षी से मीरा दासी !
    आइए मेरे पीछे...देखिए, यह है मीनाक्षी ! मीरा दासी ! (मूर्ति की तरफ छड़ी सीधी करके) इस मूर्ति को गौर से देखिए आप। सब-कुछ कहानी कहती है मीरा दासी की यह मूर्ति-अपने आप। बस, सुनने को कान चाहिए। देखने को ऑंखें चाहिए। ...ध्यान से देखें आप- जैसे अंग-अंग पीड़ा की कहानी कह रहा है- दुबला शरीर...बिखरे केश....श्वेत वस्त्र...निराभरण कंठ.....अधोमुख छातियाँ...हाथों की मुद्रा में हक्काबक्कापन!...और चेहरे पर गौर करें...(छड़ी की नोंक क्रमश: छुआते हुए) सुना मस्तक-आप्लावित ऑंखे...नाक पर यह सिकुड़न...ये टेड़े         अधरोष्ठ...और गालों पर ठहरे ये ऑंसू! ....
    ...जी ? है ! वह पीछे की तरफ .....(छड़ी से इशारा करके) ...वह खंडित मूर्ति पंडित रामदीन की ही है।
    ...क्यों नहीं ? अरे साहब, मास्टर सुभाषचन्द्र की मूर्ति यहाँ न हो- यह कैसे हो सकता है! ...वह है सामने ! (छड़ी उठती है)...इस लाइन की मूर्तियों में आखिरी! ....उस तक अभी पहुँचते हैं, तब ठीक से देखियेगा ....पहले इन्हें देख लीजिए....(छड़ी क्रमश: उठती जाती है- मूर्तियों की तरफ)...यह कंचनलाला मुखिया हैं...यह हरिहर शास्त्री हैं...यह रामेश्वरलाल हैं...यह सोबरनसिंह हैं....यह संतोषीलाल हैं...यह ग्याराम ठाकुर हैं .....और ये ऐ ही पत्थर पर दो मूर्तियाँ गनेसी और नूरा की हैं....और यह निहालिया चमार है.....यह परमानन्द शर्मा हैं...ये एक ही पत्थर पर गोकलिया और रमजिया हैं....इनके पीछे बड़े वाले पत्थर पर जो छोटी-छोटी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं-वे सब गाँव वाले हैं।
    ...और ये हैं मास्टर सुभाषचन्द्र ! इस मूर्ति को ध्यान से देखेंगे तो आप खुद जान जान जाएँगे कि क्या थे मास्टर सुभाचन्द्र! साहब, अपनी तरह के एक अजीब आदमी थे ये सुभाषचन्द्र। अड़तीस की ही उमर में चेहरे पर बुजुर्गियत आ बैठी थी-झुर्रियों के बीच। निगाह पैनी, खोजी और पारखी थी। ...अद्भुत चुप्पे आदमी थे। बहुत ही कम बोलते थे। गाँव में कोई छोटी बड़ी घटनाएँ हो जातीं, पर चुप रहते! लेकिन जब जरूरी समझते तब बोलते, और ऐसी बात बोलते  कि उसे नकारना किसी के लिए असंभव होता। चेहरा देखिए आप-ऐसा लगता है जैसे किसी सोच में डूबे हुए है। और भीतर लावा खौल रहा है! ...गाँव के ही बाशिंदा थे और स्कूल में मास्टरी करते थे। दो लड़कों और एक लड़की के बाप तथा एक पत्नी के पति थे वे, किंतु उनकी चिंता से हमेशा मुक्त रहें। ध्यान से देखिए आप मास्टर सुभाषचन्द्र को! आपने गौर किया है साहब, इस मूर्ति के गले में सूखी-मुरझाई फूलमाला है ? ....
    ...बहुत जरूरी बात पूछी है आपने ....साहब बड़ा अजीबोगरीब वाकया है इसका...हाँ-हाँ, क्यों नहीं ...उसे जरूर सुनाऊँगा....
    ..हुआ यह क एक बार आषाढ़, सावन और भादों-पूरे तीन महीने गुजर गए और इस गाँव की धरती पर आसमान से एक बूँद न गिरी। इससे गाँव के कुओं का पानी धरती में बिला गया। नदी सूख-सूखकर दुबली और गँदली हो गई। पानी न रहा तो लोग नदी के उसी गँदली पानी को निथार-निथारकर पीने पर मज़बूर हो गए।
    ...अब क्वार आ गया था और सब लोग चिंता में डूब उठे कि अब भी पानी न बरसा तो कुछ दिनों में नदी सूख जाएगी, और उकठी पड़ी जमीन से अन्न का दाना न पैदा होगा, और अन्न-पानी के बिना मानुस और ढोर किसी के भी प्राण न बचेंगे !....
    और साहब, एक दिन सबेरे-सबेरे मास्टर सुभाषचन्द्र सहित सभी गाँववालों के कानों में किसी की टेर आ टकराई थी, ''आज दस बजे पूरे गाँव का मंदिर पर बुलौवा है ऽऽऽ! ...यह बैजा नाऊ था, जो गाँववालों को सूचना देता हुआ गली में आगे बढ़ा जा रहा था।
    और साहब, लोग जमा हुए थे- मंदिर पर- बाबा के बैठने के पाट के सामने। हरिहर शास्त्री, कंचनलाल मुखिया, रामेश्वरलाल, सोबरनसिंह, संतोषीलाल आदि सबसे आगे बैठे थे। चमार, काछी, लुहार, धोबी, धानुक, धींवर, कोरी, कुम्हार, भाट, नाऊ, मिर्धा, गड़रिया आदि रैयत उनके पीछे। सबसे पीछे और दूर छोटा मेहतर बैठा था-अपने-आपमें सिमटा-सिकुड़ा-सा, चुपचाप। उसी की बाजू से रहमान भड़भूजा, मंगलशाह बैंडमास्टर, शौकतअली, नन्हें खाँ, चुन्ने खाँ, अहमद शाह और नूरा आदि बैठे थें। यानी यह कि मास्टर सुभाषचन्द्र के अलावा पूरा गाँव मौजूद था-सातों जात, अमीर-तालेवर, गरीब-गुरबा, समर्थ-असमर्थ ! और सभी बाबा के पाट पर आने का इंतजार कर रहे थे और सोच रहे थे कि देखें बाबा क्या उपाय बताते हैं पानी बरसने का।
    कंचनलाल मुखिया ने सरसरी निगाह फेरी बैठे हुए लोगों पर और पास बैठे हरिहर शास्त्री की तरफ मुखातिब हुए, ''अब तो सब आ गए।'
    ''तो अब ले आएँ बाबा को ? हरिहर बोले ।
    कंचनलाल ने हामी में सिर हिलाया। हरिहर शास्त्री खड़े हो गए। पीछे ही कंचनलाल भी। 
    थोड़ी देर में दोनों बाबा को लेकर आए-बाहों से सहारा दिए। बाबा बीमार दीखते थे। सबने देखा और श्रध्दा से सिर झुका दिए-प्रणाम के लिए।
    बाबा पाट पर बैठ गए। शांत गोमुखी में हाथ दिए। ऑंखें मूंँदे। माला फेर रहे थे वे इस वक्त। लोग बैठे थे और बाबा की तरफ एकटक देखे जा रहे थे, गोया अभी कुछ ही क्षणमें उनके सामने कोई जादू होने वाला हो और देखते देखते आसमान से पानी की धारें छूटने लगेंगी, शीतल जल की फुहारें धरती के साथ-साथ उनके कलेजों की गर्मी को भी शांत कर देंगी। सबके भीतर उत्सुकता थी, जिज्ञासा थाी।
    यकायक बाबा ने ऑंखें खोंली और अपने सामने बैठे लोगों पर मरी-सी निगाह डाली। सफेद भौहों और बरौनियों के बीच से झाँकती ऑंखें ! सामने बैठे सभी लोगों ने एक बार फिर हाथ जोड़ दिए-श्रध्दावनत होकर। बाबा देख रहे थे सबको। गोया भीतर ही भीतर तौल रहे हों लोगों को। ...गोमुखी के भीतर माला पर उँगलियाँ निर्विध्न चल रही थीं।..सहसा बाबा की धुँधली ऑंखें सतेज हो उठीं, बूढ़े झुर्रीदार चेहरे का रंग बदल गया। वे अब गिध्द दृष्टि से रामेश्वरलाल चौधरी के पीछे बैठे आदमी को घूर रहे थे-गनेसी को ! और साहब, बाबा का हाथ एक झटके के साथ गोमुखी से बाहर निकल आया और उसकी तर्जनी सीधी होकर गनेसी की तरफ उठ गई, तू कैसे आया यहाँ ? बाबा की घूरती निगाहें अब भी गनेसी पर टिकी थीं।
    बाबा की दृष्टि अपनी तरफ देखकर भी गनेसी की समझ में न आया कि यह उसी सेस पूछा गया है। बाबा को शायद भ्रम हो गया है, उसने सोचा। वह खड़ा सा हो गया और बोला, ''महाराज, मैं...मैं गनेसी हूँ।'
    हाँ, मुझे दिख रहा है कि गनेसी ही है...मैं सबको जानता हूँ और मुझे सब पता है कि गाँव में कौन क्या कर रहा है। ...तू क्यों आया यहाँ ? बाबा ने चीखकर कहा।
    ''महाराज, मो से कोई गलती हुई है, सो ...? गनेसी ने बाबा की ऑंखों को देखा, तो उसकी जुबान न उठी आगे।
    बाबा की ऑंखें जल उठी थीं, दुष्ट ! बू ब्राह्मण नहीं, चांडाल है ! ....तूने और तेरे परिवार ने नूरा के यहाँ खाया है !...धर्म-भ्रष्ट हुआ है तू ! ..फिर भी पूछता है कि ...' बाबा के चेहरे  की खाल हल्की-हल्की काँप रही थी।
    सुनकर सब-कुछ स्पष्ट हो गया गनेसी के सामने। ...तो यह बात है ! ....वह गिड़गिड़ाया, ''महाराज नूरा....''।
    बीच में ही चीख उठे बाबा, नीच, तुरंत चला जा यहाँ से! फिर कभी यहाँ मत आना चांडाल।'
    गनेसी क्षणांश को काँप गया भीतर-ही-भीतर और वहाँ से गाँव की तरफ चल दिया चुपचाप।
    वह सोचताा जाता था साहब, कि नूरा के यहाँ खाना खाने से वह एकदम ब्राह्माण से चांडाल कैसे हो गया ? नूरा के खाने में ऐसा क्या था कि....
    नूरा ! उसका पड़ौसी नूरा ! ....पहले औरों की तरह ही नूरा का घर भी तकिया पर ही था। ...कहते हैं एक समय देश-भर में हिंदू मुसलमान, और मुसलमान हिंदू का दुश्मन हो गया था। चारों तरफ मार-काट मची थी। ऐसे वक्त में तकिया पर रहने वाले पाँच-छ: मुसलमान-परिवार, हजारों-हज़ार हिन्दुओं के बीच अपने को असुरिक्षत महसूस करने लगे थे। गाँव के मुअज्ज़िजों के पास पनाह माँगने आए थे। ...उस (गनेसी) के पिता और नूरा के बाप सूखाशाह का मिठबोले या याराना था। एक दिन सूखा ने उनके पास आकर कहा था,        ''साधू भैया, इतने दिन तुम्हारे साथ रहे, अब प्राण बचेंगे तो फिर भी रहेंगे ...सुनते हैं चारों तरफ मार-काट मची है।...वहाँ तकिया पै तो सारी रात जागते जाती है...दहशत लगी रहती है-बीवी है, इकलौता बेटा है। ....भैया, अब तुम्हीं बताओ हम क्या करें ?
    इतना सुनते ही उसके पिता ने कहा था, अरे सूखा, तू भी कैसा मूरख है। ...तकिया से सामान उठाकर आ जा बगल की मड़ैया में-बीवी-बच्चे को लेकर! खाली पड़ी है। बना रहना उसमें। यहाँ कोई बाल भी बाँका न कर पाएगा तेरा !'
    और साहब, सूखाशाह ने मड़ैया में डेरा डाल दिया था। इसी तरह दूसरों ने दूसरों के यहाँ जगह पाई और सुरक्षित रहे थे। बाद में शांति पड़ने की खबरे आई थीं। तब और सब तो लौटकर तकिया पर पहुँच गए थे, पर सूखा ने गनेसी के बाप से कहा था, ''साधू भैया, तुम कह दो तो मैं तो यहीं बना रहूँ। कहीं भी सर छुपाना है। यहाँ तुम्हारा सहारा भी बना रहेगा।'
    गनेसी के बाप को तो इस पर भी ऐतराज न था और तभी से सूखाशाह उसी मड़ैया में रहता आया। उसी में नूरा बड़ा हुआ, उसका निकाह होकर बहू आई। बाल-बच्चे हुए।
    हम उम्र नूरा और गनेसी एक-दूसरे के काम-दंद में, गमी-खुशी में, त्योहार-बारात में और ऊँच-नीच में संग रहे।
    पिछले बैसाख में नूरा की लड़की रहमानी का निकाह था। टीका के रोज़ भोज था। नूरा ने कहा था, गनेसी भैया, आज यहीं खाना खाएँ सब !
    और गनेसी ने सपरिवार खाना खाया था नूरा के यहाँ दिन।
    बाबा की बात सुनकर व गनेसी के चले जाने पर पीछे बैठे नूरा का चेहरा फक् हो गया था साहब, उसने कनखी से शौकत अली, नन्हें खाँ और अहमदशाह आदि की तरफ देखा और चुपके से उठ लिया था वहाँ से। थोड़ी देर में नन्हें खाँ, चुन्ने खाँ, मंगलशाह, रहमान खाँ, शौकत अली और अहमद भी अपराधी की तरह सिमटे-सिकुड़े से चुपचाप उठकर चल दिए थे।
    उन्हें जाते देखकर बाबा ने हिकारत-भरी आवाज में पूंछा था, इन्हें यहाँ आने को किसने कहा था ?
    सामने बैठे लोगों में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। हिम्मत बटोरकर कंचनलाल मुखिया ने कहा, पूरे गाँ का बुलौवा दिया था महाराज, इसीलिए आ गए थे।'
    कंचनलाल के जबाब सेस बाबा कुछ ठंडे पड़े। फुसफुसाहट भरे स्वर में बोले, पूरे गाँव का बुलौवा था सो तो ठीक है, पर इन्हें आने के लिए किसने कहा था ?
    एकबारगी फिर सन्नाटा तारी हो गया था सबके ऊपर। एक नुकीला और अदृश्य आतंक। बाबा क्षुब्ध लग रहे थे सबको।
    हरिहर शास्त्री ने लोगों को देखा, उनके भय को भाँपा और बाबा से कहा, ''महाराज गलती क्षमा हो....अब आप जो भी कहेंगे हम सब वही करने के लिए तैयार हैं।
    बाबा का हाथ धीरे से फिर गोमुखी के भीतर पहुँच गया और उन्होंने ऑंखें मूँद लीं। सामने बैठे लोग उनके मुँह की तरफ देखने लगे थे। देखें, अब क्या कहते हैं ! क्या उपाय बताते हैं।
    बाबा ने ऑंखें मूँदे हुए ही कहा, पानी के लिए धरम-पुण्यय करना पड़ेगा।
    यह सुनकर क्षीण सी प्रसन्नता सबके चेहरों पर झलक उठी सहसा। धरम-पुन्न !         धरम-पुन्न ....पर कैसा धरम पुन्न करना पड़ेगा ? ...बाबा ही बताएँगे ! ....
    बाबा की मुद्रा शांत थी। गोमुखी के भीतर हाथ की हलचल दिख रही थी सबको। लोग जानते हैं बाबा को। खूब जानते हैं। अब तक न जाने कितना भजन कर चुके हैं। न जाने कितना तप कर चुके हैं। यह तप का ही तो परताप है कि कई बार पकी फसल पर गड़गड़ाते ओले बरका दिए हैं उन्होंने। कई बार टीड़ी-दल निकाल दिया है-फसल केक ऊपर से बिना कोई नुकसान पहुँचाए। ...लोगों की आधि-व्याधि तो वे आए दिन ठीक करते ही रहते हैं! ...सब भजन का परताप है ! ...बाबा कह रहे हैं तो जरूर बरसेगा पानी....पर क्या धरम-पुन्न करना पड़ेगा ? ...........
    बाबा बोले, धरम-पुण्य से संसार में क्या नहीं हो सकता ! ..सब-कुछ हो सकता है। ... शब्द हौले-हौले फिसलते हुए बाबा के मुँह से बाहर आ रहे थे, सबसे पहले श्रीमद्भागवत बँचेगा यहाँ-सात दिन, जिसे सुनकर मनुष्य के पाप क्षीण होते हैं! पाप बढन्े पर ही ताो अकाल पड़ता है। ...उसके बाद मेघों के लाने के लिए हवन होगा, मेघ-यज्ञ।''
    बाबा की बात सुनकर लोगों के भीतर मिश्री सी घुल गई। यह तो आम के आम गुठलियों के दाम हैं। अब पानी तो बरसेगा ही, इस बहाने भगवान का कीर्तन भी सुनने को मिल जाएगा। भागवत की कथा। भागवत की कथा में तो आनंद ही आनंद है। शास्त्री जी की कथा सुने भी कई दिन हो गए। और भागवत बँचेगा, तो भंडारा ही होगा ही-देशी घी का। डालडा को ताो छूते भी नहीं हैं बाबा। जानवरों की चर्बी मिली रहती है डालडा में-वे कहते हैं। ...अब तो आनंद हैं। सात दिनों तक भगवान का लीला-गान और एक दिन परसादी। ...
    और साहब, बाबा के निर्देशानुसार कार्य शुरू हो गया। लोगों ने गाँव में चंदा इक्ट्ठा करना शुरू कर दिया। सातों जात ने खुशी-खुशी दिया चंदा। जिनकी गाँठ खाली थी, उन्होंने इधर उधर से लाकर लिदए। जो अभी प्रबंध न कर पाए थे, वे भी एक दो दिन में कहीं न कहीं से इंतजाम कर देने को तत्पर थे। धरम-पुन्न की बात है। और फिर सब अपने ही लिए तो हो रहा है। ...भगवान प्रसन्न होंगे, तभी तो बरसेगा पानी। ...
    किसी तरह का अवरोध न आया था अब तक के किसी काम में, पर अब बात यहाँ आकर अटक गई साहब, कि भागवत का परीक्षित कौन बनेगा ? भले ही पूरे गाँव के नाम पर होगा भागवत-पाठ, लेकिन परीक्षित की गद्दी पर तो कोई एक ही बैठेगा और वही सातों दिन नियम-संयमपूर्वक रहकर कथा सुनेगा। यों तो पूरा गाँव ही सुनेगा कथा, लेकिन सबमें और परीक्षित में फर्क होता है। सच पूछो तो असली पुन्न तो परीक्षित का ही होता है। कहते हैं शुकदेव जी महाराज के मुख से सात दिन भागवत की कथा सुनने के बाद राजा पारीक्षित की साँप के काटने पर भी मुक्ति ही हुई थी। सो किसी तरह भी यह निश्चय नहीं हो पा रहा था कि परीक्षित कौन बने। मुँह खोलकर कोई न कहता था, पर सभी बड़भैये परीक्षित बनने को लालायित दीखते थे। पानी बरसने की बात तो पीछे छूट गई। प्रथम तो उनमें से कोई भी इस पुन्न कमाने के अवसर को न खोना चाहता था। ...अब किससे ना किया जाए किससे हाँ। एक अनार सौ बीमार ! ...अंतत: यह निश्चत हुआ कि बाबा जिसे बनाएँगे, वही बनेगा परीक्षित। बाबा के कहे पर किसी के मैल न होगा ! वे जिसे योग्य समझेंगे उसे ही बनाएँगे।
    और साहब, सब इक्ट्ठे होकर पहुँचे बाबा के पास। हरिहर शास्त्री और कंचनलाल ने बाबा को सारी बातें बताई और कहा, महाराज, अब आप जिसे कहेंगे, वही बनेगा परीक्षित।
    सुनकर बाबा की ऑंखे झिलमिला उठीं यकायक, बोले, यों ही नहीं बन जाता कोई परीक्षित।'
    ''तो महाराज.... ? कंचनलाल बाबा का मुँह देखने लगे।
    'पूरे गाँव का काम है....मैं क्या कहूँ ? बाबा ने रंग बदला ।
    'पर महाराज, फैसला तो आपको ही करना पड़ेगा। हम सब इसीलिए यहाँ आए हैं। कंचनलाल ने प्रार्थना की।
    देखों, साफ बात है-जो जितना देगा, उसका उतना पुण्य होगा। पर जो सबसे अधिक देगा, परीक्षित तो वही बनेगा। बाबा ने दो टूक कहा। गोमुखी के भीतर माला निरन्तर चल रही थी।
    कंचनलाल की समझ में कुछ न बैठा। उन्होंने पूंछा, सबसे अधिक महाराज, कम-ज्यादा का तो सवाल ही नहीं है....चंदा तो सबने हिसाब से दिया है।
    बाबा ने फिर ऑंखें मूँद लीं। वे बराबर माला फेरे जा रहे थे। उसी हाल में बोले, चंदा से कोई मतलब नहीं परीक्षित के लिए।
    ''हाँऽऽ !' हरिहर शास्त्री यकायक उछल पड़े प्रसन्नता के मारे, मतलब साफ है कि जो परीक्षित बनने के लिए सबसे अधिक रूपये देगा, वही बनेगा परीक्षित। उन्होंने बाबा की तरफ देखा। बाबा निर्विकार भाव सेस भजन में लगे थे।
    हरिहर शास्त्री और कंचनलाल ने एक दूसरे की तरफ देखा।
    आ गया समझ में महाराज.....कंचनलाल ने बाबा के मुँह की ओर देखकर कहा, ऐसा ही करेंगे।
    बाबा अब माला-मग्न थे। यह देखकर कंचनलाल और हरिहर शास्त्री उठ खड़े हुए। चलते वक्त दोनों ने सिर नवाकर बाबा को प्रणाम किया और लौटकर लोगों के पास आ गए। उत्सुक बैठे लोगों को उन्होंने बाबा का फैसला कह सुनाया।
    सुनकर ज्यादातर लोगों के भीतर प्रसन्नता फैल गई, न्याय की बात कही है बाबा ने।
    'सही बात है, परीक्षित बनने के लिए ज्यादा तो देना ही पड़ेगा। सुर में सुर      मिले।
    'अपनीद अपनी श्रध्दा की बात है। अनेक बोल फूटे।
    ....तो भैया, शुभ काम में देर क्यों । हरिहर शास्त्री ने कहा, जो कोई परीक्षत बनना चाहता है-लगाए बोलीं। ...बोली जिसके पास टूटेगी, वही रहेगा परीक्षित।
    और साहब, एकबारगी लोगों में सनसनी फैल गई।
    कुछों के भीतर बैठी परीक्षित बनने की लालसा एक झटके के साथ उठ खड़ी हुई।
    कुछ बगलें झाँकने लगे।
    कुछों के भीतर उठा-बोली ?...अब गेहूँ-चना की तरह बोली लगेगी परीक्षित की गद्दी की ? धरम-पुन्न की बोली ?
    सब अपनी-अपनी जगह पर जमें बैठे थे।
    यकायक सोबरनसिंह खडे हो गए। सबकी तरफ देखकर मुध्दिम स्वर में बोले, एक हजार। ...मेरे एक हजार रहे।-
    लोगों की निगाहें सोबरनसिंह पर जा टँगी।
    तभी ग्याराम ठाकुर ने खड़े होकर कहा, ग्यारा सौ...मेरे ग्यारा सौ रहे।
    'मेरे बारा सौ सौ। सोबरनसिंह ने ऊँचे स्वर में कहा।
    ग्याराम ठाकुर बोले, पंद्रा सौ।
    'दो हजार । सोबरनसिंह ने तैश में कहा।
    'ढाई हजार! ग्याराम ठाकुर की आवाज ऊँची हो गई।
    लोग साँस साधे देख रहे थे
    यकायक रामेश्वरलाल ने खड़े होकर कहा, मेरे तीन हजार।
    सोबरनसिंह ने कहा मेरे चार हजार ।
    रामेश्वर लाल ने छलाँग लगाई, पाँच हजार ।
    लोग सन्नाटे में आ गए थे और साँस साधे देख रहे थे कि हजारो में बढती बोली देखें
कहाँ जाकर रूकती है। ...कितने हजार पर ?
    ग्याराम ठाकुर अब चुप थे। पाँच हजार से सआगे उनकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी।
    सोबरनसिंह खड़े-खड़े अपने ऍंगोछे को बार-बार दाएँ से बाएँ, बाएँ से दाएँ कंधे पर बदल रहे थे। सोचा-विचारी के बाद उन्होंने एक और फेंक लगाई, साढ़े पाँच हजार !
    अब रामेश्वरलाल को भी सोचना पड़ा । साढ़े पाँच हजार रूपैया । ...सोच-विचारक े बाद उन्होंने कहा, छै हजार !
    लोगबाग सोचने लगे थे कि बोली टूटने को है अब । छ: हजार से आगे सोबरनसिंह कभी न जाएँगें।
    उसी वक्त मजमें के पिछाड़ी हिस्से में बैठे चमारों के बीच तिहाली मेंबर के भीतर सुगबुगाहट उनके चेहरे पर दिखाई दे रही थी। यकायक उन्होंने अपने आसपास बैठे भाई-     बंधों की तरफ निगाह डाली और खड़े हो गए। ऊँची आवाज में बोले, मेरे सात हजार रूपैया।
    और साहब, लोगों के कान खड़े हाो गए यह सनुकर, और उनकी ऑंखे निहाली के चेहरे पर टँग गई। निहालिया चमार बोली लगा रहा है-परीक्षित के लिए। चारों ओर फुसफुसाहटें फैल गई-
    -सोच समझ के ही बोली लगाई होगी उसने ! .....
    -सब पैसे की बाते हैं ! ......
    -भैया, जब बोली ही लग रही है, तो सभी को हक है ! ....
    -अरे भैया, जब धरम-पुन्न के काम में बोली लगने लगी, तो किसी को क्या दोष है ? ...जिसके पास पैसा होगा वह तो लगाएगा । उसमें चमरा उमरा क्या !...खेल में लालाजी काहे के ! ....
    निहाली को बोली लगाते देखकर सोबरनसिंह की ऑंखें लट्टू की तरह जल उठीं । वे बेकाबू होकर चीख उठे, मेरे आठ हजार रूपैया ।
    सुनकर लोगों की धड़कने तेज हो उठी-तनातनी में कहीं बात न बढ़ जाए । वे कभी सोबरनसिंह की ओर देखते, कभी निहाली की ओर।
    रामेश्वर ने बोली बढ़ाई, मेरे साढे आठ हजार रूपैया।
    निहाली ने तत्काल कहा, नौ हजार ।
    और साहब, क्षणांश में लोग सोच गए कि अब निहालिया किसी भी कीमत पर पीछे न हटेगा। पैसे की तो कोई कमी नहीं है उसपै। सभी जानते थे कि निहाली का बड़ा लड़का रामनिहोर आजकल थानेदार है। ...आज से बीस-पच्चीस साल पहले निहाली का नाम-निहाई था...लेकिन अब गाँव के बड़े बूढ़े भले ही उसे कभी 'निहाई' या निहालिया' कह देते हों, पर सरपंच, पटेल और मेंबर तक निहालीराम ही कहते हैं । पिछले चुनाव में तो निहाली को चमारों के वार्ड का मेंबर भी चुना गया था। तब से ''निहाली मेंबर' ही ज्यादा प्रचलन में आ गया है। ...जब से लड़का थानेदार बना है तब से निहाली का कच्चा घर सबके देखते-देखते किस तरह धीरे-धीरे पक्के दुमंजिले में तब्दील होता गया है, जिसके ऊपर अब कलई से पुता अटा कोस भर दूर से ही चमकता है।.... अब निहाली मेंबर पिचहत्तार बीघा का जमींदार है। ...और जब बोली ही लग रही है तो वह पीछे क्यों हटेगा ? ...पलांश को अधिकांश लोगों के भीतर गड़गड़ाते बादलों के बीच बिजली की तरह यह बात भी कौंध गई कि व्यास गद्दी के सामने परीक्षित की गद्दी पर जब निहालिया चमार बैठेगा, तो क्या होगा ? ....
    उसी समय हरिहर शास्त्री वहाँ से उठकर चले गए और कुछ ही पलों में लौटकर फिर यथास्थान आ बैठे।
    निहाली की बोली सुनकर रामेश्वरलाल को लगा कि जैसे उन्हें जीते-जी जमीन में गाड़ दिया गया है। वे आग बबूला होकर बोले, मेरे दस हजार रूपैया।
    इसके आगे निहाली का मुँह खुलने को ही था कि उसने और सभी ने बाबा को अपनी तरफ आते देखा-बीमार और जर्जर शरीर ढोते, धीरे-धीरे चलते बाबा । लोगों की निगाहें थिर हो गई बाबा पर। क्यों आ रहे बाबा ? इस तरह बेवक्त तो कभी न निकलते थे मंदिर से। हठात् प्रणाम के लिए सिर झुक गए, हाथ जुड़ गए लोगों के बाबा की तरफ्। बाबा निकट आ गए तो लोगों को पहली बार बाबा की बूढ़ी ऑंखों में लपलपाता सा कुछ दिखा। और लोग काँप गए भीतर-ही भीतर। एक अबूझ सा भय और सन्नाटा तारी हो गया अचानक सबसे ऊपर। सकपकाए-से देखते रहे बाबा की तरफ। देर से शहतूत के पेड़ पर पिपियाता पपैया एकदम चुप लगा गया।
    और साहब, बमुश्किल शरीर को साधते और सबकी तरफ देखते बाबा ने कहा, धरम के काम में स्त्री और शूद्र को कोई अधिकार नहीं है।
    'क्यो महाराज ? क्यों नहीं है अधिकार ? निहाली ने तपाक से प्रश्न किया ।
    'धरम-शास्त्रों में ऐसा लिखा है- इसलिए....'
    बाबा की बात पूरी होते-न-होते निहाली ने पूछा, तो धरमशास्त्रों में यह लिखा है      कि....'
    निहाली की बात अभी पूरी न हुई थी कि उनके आसपास बैठे बिरादर भाईयों ने खड़े होकर उन्हें समझाया कि बाबा के मुँह लगना टीक नहीं है, तो निहाली मेंबरर चुप हो गए।
    बाबा ने कह दिया, शूद्रों का धरम अन्य वर्णो की सेवा करना है ......अन्य कामों का उनके लिए निषेध है।'
    निहाली ने बैठे हुए ही धीमी और रूखी आवाज में कहा, 'हम लोग आदमी थोड़े ही हैं सो हमें और कोई अधिकार होगा....हम तो जानवर है ....। और उठकर वहाँ से चल दिए। उनके जाते ही वहाँ बैठे अनेक लोग उठकर चले गए।
    और साहब, बाकी रहे लोगों का तनाव उनके चेहरों से ऐसे उड़ गया जैसे ठंडी हवा लगने से पसीना उड़ जाता है। उन्होंने चैन की साँस ली। बाबा न आते तो चमरूआ बढ़ता ही जाता। धरम की रक्षा कर ली बाबा ने आकर ! ...सबकी ही रक्षा करते हैं बाबा। सबकी रक्षा के खातिर जतन कर रहे हैं बाबा । पानी किसी एक के लिए थोड़े ही बरसेगा-सभी के लिए बरसेगा। पर चमरूओं को तो परीक्षित बनने की पड़ी थी।
    अब मीन-मेख की जरूरत न रही थी । दस हजार की बोली रामेश्वरलाल की थी। परीशित की गद्दी उनके हाथ रही। बाबा का मत मिल गया उन्हें।
    बाबा के परम प्रिय शिष्यों में से एक थे-रामेश्वरलाल। हर साल गुरू पूर्णिमा को पाँच सौ एक रूपये चढ़ाते थे वे बाबा के श्रीचरणों में। बाबा का दिया हुआ तुलसी का गुरिया हमेशा उनकी गर्दन में रहता था और मंत्र जुबान पर। रोजाना पूजा करने का नियम बना हुआ था। माथे, छाती, नाभि और बाहों के साथ-साथ गुरिया पर तिलक लगाते थे-पूजा के वक्त। शुरूय से ही उनका हृदय भगवान के प्रति भक्ति-भाव से भरा रहा था। रोजाना रामायण बाँचने और गीता पाठ का नियम बनाए हुए थे। एक सौ आठ मनियाँ की माला फेरते थे। ...उस समय तो उनके भेजें में फितूर घुस बैठा था, सो उन्होंने अपने सगे छोटे भाई की गर्दन पर सोते में फरसा चला दिया था। आधी जायदाद का हकदार था वह, और जायदाद का लोभ-मोह सभी को होता है। ... कत्ल किया था, सो सज़ा भी हुई थी रामेश्वरलाल को। पर साहब, दो ही साल में बरी होकर आ गए थे। ...जिस दिन बरी होकर आए थे, उस दिन सीधे बाबा के पास पहुँचे थे- ऑंखें ऑंसुओं से भरी थीं। बाबा ने समझाया था, तुम दु:खी क्यों होतें हो रामेश्वरलाल ?  ........जो कुछ होता है रामजी की मर्जी से होता है। पत्ताा भी उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं हिल सकता।...अब तुम ऐसा करो-यहाँ मंदिर बनवाकर 'शिव पंचायत' पधरवा दो, और गंगा स्नान करके गंगा-जल लाकर शिवजी पर चढ़ा दो-तुम्हारे सब पापों का नाश हो जाएगा। चिंता त्याग दो।
    और सहाब, रामेश्वरलाल वही सब करके, जो बाबा ने कहा था, निष्पाप हो गए थे।...वह रहा रामेश्वरलाल का मंदिर । (छड़ी से इशारा करके)..... आइए...पास से देखिए...यह शिला लगी है उनके नाम की- 'इस मंदिर का निर्माण और मूर्ति स्थापना श्री रामेश्वरलाल आत्मज श्री परमेश्वरलाल ने करवाया...सन्...संवत्...।
    ऐसे थे साहब, रामेश्वरलाल, जिन्होंने परीक्षित बनने के लिए दस हजार रूपए लाकर बाबा के चरणों में डाल दिए थे।
    और साइत के मुताबिक भागवत शुरू हुआ था। रामेश्वरलाल परीक्षित के आसन पर बैठे थे। हरिहर शास्त्री व्यास-गद्दी पर। श्रध्दालु श्रोता सुनने लगे थे।
    चौमासे-भर के सूखे से धरती का चेहरा काठ-कठोर हो गया था। खेत मेड़ एक हो गए थे-बंजर और तृणहीन। ...आसमान बीहड़ और भयावना लगता था। धरती और आसमान के बीच साँय-साँयय कर चलती हवा में झुंड-के-झुंड गिध्द और चीलें मँडराते थे, जो भूख-प्यास से मर गए किसी गरीब-गुरबे के ढोर पर आ झिमटते थे और उसे निबटाकर फिर आसमान में उड़ने लगते थे।
    और साहब, नौ बजते ही भागवत का लाउडस्पीकर लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगता था...तब तक लोग बैल-चौपायों का पानी और रूखा-सूखा चारा दे, नहा-धो, खा-पीकर निवत्त हो चुके होते ओर भागवत सुनने चल देते थे।
    उस वक्त साहब, स्कूल में मास्टर सुभाषचन्द्र की जान को साँसत होती थी। उन्हें लगता रहता था कि िउनका भरा-पूराा वर्तमान उनसे छिटककर दूर चला गया है और उनका भविष्य भी उनके हाथ से निकल जाना चाहता है। ...उन्होंने कितनी बार कहा था लोगों से कि पानी प्रकृति के संतुलन से बरसता है और असंतुलन से पड़ता है अकाल-इसके लिए बाबा क्या कर सकते हैं ! ...पर किसी ने भी कान न दिया इस बात पर ! ...उसके बाद जो-जो घटनाएँ हुई, उन्हें भूल नहीं पाते थे मास्टर सुभाषचन्द्र । एक-'एक दृश्य, एक-एक चेहरा उभरता चला जाता उनकी ऑंखों के सामने .....
    ........और लाउड स्पीकर की आवाज़ सुन-सुनकर स्कूल के बच्चे बार-बार उनके पास आकर चिरौरी करते थे, 'गुरूजी, अब तो छुट्टी कर दो ! देखो, कब का बँच रहा है भागवत, गुरूजी ! लेकिन सुभाषचन्द्र छुट््टी न करते थे। वे देर तक कुछ बुदबुदाते रहते थे। उनका चेहरा लाल हो जाता था आग के गोले की तरह! ...वे बच्चों पर उस माहोल का साया तक न पड़ने देना चाहते थे जिसमें गाँववाले चोटी तक डूब चुके थे ! पर बच्चे थे कि रोज़ के नियमानुसार 'हे प्रभो आनंददाताा ज्ञान हमको दीजिए, शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए...' प्रार्थना के पश्चात् कुछ देर परमानन्द शर्मा की धर्म और सदाचार-शिक्षा पाने के बाद, सुभाषचन्द्र को दम न लेने देते थे। शर्मा जी की तरफ से तो उन्हें पूरी छूट होती थी। शर्मा जी खुद धर्म-प्राण व्यक्ति थे और बाबा के दीक्षित शिष्य भी। सो खुद भी भागवत सुनने जाने के लिए तत्पर रहते थे। पर बच्चों की छुट्टी का अधिकार न पाते थे वे-खुद के भीतर। सो उन्हें सुभाषचन्द्र के पास भेजते थे। सुभाषचन्द्र लड़ रहे थे-एक लड़ाई-अपेन भीतर भी, बाहर भी।
    और साहब, उसी वक्त चमारों, कोरियो, बराहरों, धोबियो, मेहतरो...यानि बाबा के अनुसार शूद्रों के भीतर काँटा सा कसकता था- लाउडस्पीकर सुन-सुनकर ! ...शूद्रों को धरम के काम का अधिकार नहीं है। वाह रे वाह ! .... इसीलिए तो उनके पुरखों के पसीने से बने मंदिर में वे घुस भी नहीं सकते। इसीलिए तो अपने बाप-दादों की खोदी कुइया का पानी वे ही नहीं ले सकते। उन्हें तो सिर्फ सेवा करने का अधिकार है, और कोई अधिकार नहीं।
    और साहब, एक दिन निहाली मेंबर ने सबको इक्ट्ठा कर ऐलान कर दिया, भाइयो ! धरम-पुन्न पर किसी का कंटरौल नहीं हो सकता ! ....बाबा कहते हैं कि हमें धरम-पुन्न का अधिकार नहीं है .....उन्होंने हमारा चंदा लौटाा दिया है ....ठीक है, अब हम अलग से धरम-पुन्न करेंगे....कहीं से पंडित बुलाकर हम भी भागवत बँचाएँगे । ....जग्गि करेंगे।
    सबने निहाली की बात का समर्थन किया था।
    और जिस दिन बाबा के भागवत का आखिरी दिन था, उस दिन गाँव की दूसरी ओर बाबा से उपेक्षित लोगों का भागवत शुरू होने जा रहा था। निहाली मेंबर ग्यारह हजार रूपए देकर निर्विरोध परीक्षित बने थे। पाँच हजार रूपए पर अनुबंधित होकर आए पंडितजी-कथावाचक। और तमाम चमार, कोरी, धोबी, बराहर, मेहतर आदि श्रोता ! .....
    और जब यह खबर बाबा तक पहुँची, तो क्रोध से काँप उठे वे। ऑंखों में आग की भट्ठी जल उठी, क्या हो रहा है यह ? वे चीखे, 'अनर्थ हो जाएगा !......जानते हो, शंबूक की तपस्या से ब्राह्मण का पुत्र मर गया था !
    लोग टकटकी लगाए बाबा के क्रोधाविष्ट बूढ़े चेहरे को देख रहे थे। उनके कानों में बार-बार प्रतिगुंजित हो रहा था-जानते हो शंबूक की तपस्या से ब्राह्मण का पुत्र मर गया था!...जानते हो...
    और साहब, स्कूल के बच्चों की अभी छुट्टी हुई थी, और उनके पीछे ही परमानन्द शर्मा भागवत सुनने गए थे कि सुभाषचन्द्र ने गाँव के लोगों काो इधर-उधर भागते देखा। पर इस ओर उन्होंने कोई खास ध्यान न दिया। तभी परमानन्द शर्मा लौटकर आ गए-बदहवास और हाँफते हुए। वे सुभाषचन्द्र की ओर मुखातिब हुए, ''भैया गजब हो गया !'
    'क्या हुआ ? सुभाषचन्द्र ने परमानन्द की ओर देखा ।
    'चमारों के भागवत में ....पमरानंद हकलाने और हाँफने के सिवा कुछ न कह पा          रहे थे।
    'चमारों के भागवत में ? ..............क्या हुआ शर्मा जी, बताओ तो क्या हुआ ? सुभाषचन्द्र व्यग्र हो उठे थे ।
    'चमारों के भागवत में....' परमानन्द हकला रहे थे।
    अब सुभाषचन्द्र ने गौर किया, लोग दौड़े जा रहे हैं-चमारों के भागवत स्थल की ओर! वे भी लोगों के पीछे दौड़ लिये- देखें तो, बात क्या है ! .....
    और साहब, भागवत-स्थल पर पहुँचकर सुभाषचन्द्र ने देखा, कुछ लोग इधर-उधर बिखरे खुसर-पुसर कर रहे हैं।  एक तरफ खड़े कंचनलाल और निहाली मेंबर आपस में बतिया रहे हैं- उनके चेहरों पर शिकन तक नहीं है ! ....तंबू तना है...व्यास-गद्दी बनी है, लेकिन वहाँ न भागवत है न उसकी कथा, न पंडित है न कोई श्रोता।
    सुभाषचन्द्र की कुछ भी समझ में न आया। उन्होंने देखा- लोग वहाँ दौड़ते चले आते हैं और बिना कुछ बोले-बतियाए कुछ देखते रहते हैं-भयभीत-से और फिर लौट पड़ते हैं-  दौड़ते हुए ही-मंदिर वाले भागवत की तरफ ! ............आखिर हुआ क्या है ? सोच में डूबे सुभाषचन्द्र उसी तरह दौड़े मंदिर वाले भागवत की तरफ-जिस पर और लोग दौड़ते गए थे !  ....और पहुंचकर उन्होंने देखा कि वहाँ भी न भागवत बँच रहा है, न उसके श्रोता हैं ! हाँ हरिहर शास्त्री निरापद भाव से गद्दी पर बैठे थाली में भरे रूपए-पैसे गिनने में लगे हैं......और लोगों की भीड़ पाट पर बैठे-ऑंखे मूँदें, माला फेरते-बाबा के सामने जमा है-शरणागतों की तरह-हाथ जोड़े !
    सुभाषचंद्र भीड़ के पीछे जा खड़े हुए और जानने को उत्सुक थे कि आखिर बात क्या है ! ... उसी वक्त भीड़ में से कोई फुसफुसाया था, 'पाँच जने तो अजा हो गए।'
    'क्या ! हठात् सुभाषचंद्र के मुँह से निकला, कौन .... ?
    'गोकलिया, शिबुआ, रमजिया उधर और दो जने इधर के.....' जबाब मिला, 'गरीब न किसी की तीन में थे न पाँच में- वे ही मारे गए बेचारे ! .....लाठियाँ ठीक कपार में बैठ गई थीं उनके ।'
    अब ज्यादा रार बढ़ गई। लोगों में खुसुर-पुसुर फैल गई। वे बाबा की तरफ ताक रहे थे- याचना सी करती निरीह ऑंखों से।
    और साहब, सहसा सुभाषचंद्र की त्योदी फटी रह गई। उन्होंने देखा-बाबा का शरीर और चेहरा बदला हुआ है। उनकी खाल पके फोड़े की तरह पिलपिली तथा बैल के सींग की तरह रूखी और छिलकेदार है। वे जुगाली सी करते हुए मुँह चला रहे हैं और उनके होठों के छोरों से लाल-लाल खून की फसूकर सहित लकीरें बह रही हैं ! .....मास्टर सुभाषचंद्र दहशत से हिल उठे उस क्षण। और लोग थे कि हाथ जोड़े खड़े थे। और यह देखकर बाबा के होंठ मुस्कान उगल रहे थे-एक आदमखोर मुस्कान !
    और साहब, अगले ही क्षण लोगों ने देखा-मास्टर सुभाषचंद्र बाबा की गर्दन टीपे हुए हैं, और बाबा की रक्त-रंजित जीभ बाहर लटक आइ्र है।
    यह देखकर लोग बौखला उठे और मास्टर सुभाषचंद्र पर दुश्मनों की तरह टूट पड़े थे। और साहब, आपके यह जानकर पता नहीं कैसा लगेगा कि उन्होंने सुभाषचंद्र की जान ले ली थी पीट-पीठकर-उसी जगह।
    और साहब, मास्टर सुभाषचंद्र की मौत होने के बाद अंचभे की बात यह हुई कि बाबा फिर जीवित हो गए थे।
    फिर ?
    फिर क्या साहब, वे तो आज तक ंजिंदा हैं।
    हॉँ साहब, आज तक !
    कहाँ हैं ? .
    अरे साहब, अजीब बात पूछी है आपने ! ....आपमें से बहुतों ने तो उन्हें देखा भी       होगा ! अब वे किसी एक जगह नहीं ठहरते....देश...भर में विचरणा करते हैं।
    खैर ....अब आप किधर चलना चाहेंगे ?
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gram, scool, adhyapak



महेश कटारे की कहानी-
इस सुबह को नाम क्या दूँ

    रामरज शर्मा अभी अपना स्कूटर ठीक तरह से स्टैंड पर टिका भी नहीं पाए थे कि उनकी प्रतीक्षा में बैठा भगोना-चपरासी खड़ा हो, चलकर निकट पहुँच गया-''मालिक आपकी बाट देख रहे हैं ....बहुत जरूरी में ....मैं यहाँ चार बजे से बैठा हूँ।'' भगोना ने सूचना, कार्य की गंभीरता और उलाहना एक साथ बयान कर दिया।
    ''क्यो ?'' स्कूटर के सही खड़े होने के इत्मीनान की खातिर उसे जरा-सा हचमचाकर परखते हुए शर्मा जी ने पूछा।
    भगोना कोई उत्तर न दे चुपचाप खड़ा रहा। वह चपरासी है-उसे तो सौंपी गई जिम्मेदारी की भरपाई करनी है। यहाँ नौकरी करते-करते वह समझ गया है कि वह इधर- उधर का न सोचे, न करे। क्या पता, कौन-सा ठीकरा फूटे और उसके सिर पड़ जाए ? चेरी को चेरी ही रहना है...तौनार-बधार के रानी तो हो नहीं सकती।
    ''ठीक है...देखता हूँ.....तुम शाम के लिए दूध लाकर रख देना....खाना मत बनाना !'' कहकर डिग्गी में से थैला निकाल रामरज शर्मा ने भगोना को पकड़ा यिा-''सुनो ! कमरे में झाडू भी लगा देना, जो तुम अक्सर दूसरी सुबह के लिए छोड़ देते हो !'' कह शर्मा जी मुस्कराए, तो भगोना भी मुस्करा दिया।
    रामरज शर्मा उन्हीं पैरों हवेली की ओर हो लिये। मन में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क थे- ''ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि आज छुट्टी के दिन भी इंतजार में बैठे हैं ? मालिक द्वारा प्रतीक्षा उन्हें अक्सर किसी न किसी धर्मसंकट में डालती रही है। मालिक उनकी संस्थाा की प्रबंध समिति के मंत्री हैं अर्थात् प्रबंधक हैं। पूरी समिति उनकी अपनी है। उनके हलवाहे-चरवाहे तक प्रबंध समिति यानी कार्यकारिणी के सदस्य हैं। हालाँकि विधान के अनुसार रामरज शर्मा ''प्राचार्य'' भी सदस्य है, पर जो मालिक ने कहा, वही मत हलवाहों से लेकर लठैतों का। रामरज शर्मा ने कभी-कभार लठैतों को मत मोड़ने या अपना कोई मत बनाने के लिए उत्साहित भी किया है, जिसका अर्थ लठैत तो नहीं समझे, पर लठैतों के जरिए बात मालिक तक जरूर पहुँची है तथा किसी को स्वतंत्र मत रखने की सलाह देने का परिणाम मालिक हर बार रामरज शर्मा को प्रतीकात्मक रूप में या खुले-खुले समझा चुके हैं।
    मालिक के यहाँ कोई नियम-कानून नहीं होता, इसलिए रामरज शर्मा का एक दायित्व वह रास्ता तलाशना भी होता है, जिसमें नियमानुसार नियम तोड़ा जा सके। कभी-कभार मामला ऐसा फँस जाता है कि रामरज शर्मा के हाथ में सिर्फ गिड़गिड़ाना रह जाता है-   ''मालिक ! आप जो कह रहे हैं वह तो ठीक.....पर ऐसा करने से मेरी नौकरी बन आएगी।'' 
    मालिक का सीधा उत्तर होता है- ''जब हम हैं, तो नौकरी कौन ले सकता है ? कोई अधिकारी खुट-पच्चड़ करो, तो हम देख लेंगे । हमें क्या अपनी संस्था की चिंता नहीं है ? अच्छा, हम लिखकर दिए देते हैं-ऑर्डर तो मानोगे ? ठीक !'' और तब रामरज शर्मा पापी पेट और अपनी नपुंसकताा पर मन ही मन लानतें भेजते हुए सफेद कागज पर काली या नीली कुछ ऐसी इबारत उतार लेते हैं, जो उनकी नौकरी बनाए रखने में सहायक हो सके। मंत्री जी बिना इबारत पढ़े उसके नीचे बैठ जाते हैं-ठाकुर राजेन्द्रसिंह ! इसके बाद रामरज शर्मा उर्फ प्राचार्य, हायर सैकेण्ड्री स्कूल झंगवा की जिम्मेदारी है कि वह मालिक के तात्कालिक व भविष्य के हितों की रक्षा करें।
    रामरज शर्मा हवेली पहुँचे, तो पाया कि मालिक सचमुच बारादरी के आगे वाले चौतरे पर एक आरामकुर्सी में अधपसरे थे। उनसे पाँच हाथ की दूरी पर राइफल से सजा जीवनसिंह पटिया पर बैठा था। कार्यकारिणी सदस्य और हलवाहा नेतराम बगल में जमीन पर बैठा बीड़ी फूँक रहा था।
    ''मालिक, शर्मा जी आ गए !'' नेतराम ने बीड़ी का ठूँठ जमीन पर रगड़ते हुए सूचना दी।
    दो-तीन सीढ़ियाँ चढ़ रामरज ने अपनी ओर गर्दन घुमाते मंत्री जी को अभिवादन किया-नमस्कार मालिक साहब !'' और यथासंभव दीनता के साथ प्राचार्य पद की गरिमा का समन्वय करते शेष सीढ़ियाँ चढ़ गए।
    ''अच्छा, आ गए शर्मा जी ? चलो ठीक है ! अरे भाई, इम्तहाज के समय में तो आप लोगों को हेडक्वाटर्रर पर ही रहना चाहिए। खैर ....घर-गिरस्ती भी देखनी पड़ती है...हम तो बड़ी चिंता में थे....आप आ गए, अब कोई चिंता नहीं। ''मंत्री ने अपनापन प्रकट करते हुए सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने का संकेत किया।
    इन कुर्सियों को देखते ही रामरज के मन में कोई काँटा-सा कसक जाता है। उन्होंने बड़े मन से ये सोफानुमा कुर्सियाँ विद्यालय के स्टाफ रूम के लिए खरीदी थीं। महीने-भर के भीतर-मंत्री जी के यहाँ कुछ ऐसे मेहमानों का आगमन हुआ, जिनके बैठने-बिठाने को गरिमामय बनाने केक लिए यही कुर्सियाँ उपयुक्त समझी गई। तब से दो साल बीत गए, कुर्सियाँ विद्यालय की ओर नहीं लौटीं। दो एक बार रामरज ने दबे स्वर में स्मरण दिलाया, तो मंत्री जी की चढ़ती भौहों के तेवर भाँप उन्होंने इश्यू रजिस्टर पर खानापूरी कर दीं।
    हाँ मालिक ! क्या हुकुम है ? '' जबरिया मुस्कान के साथ रामरज शर्मा ने पूंछा।
    प्रबंधक जी के चेहरे पर करूणा और सहानुभूति छलक आई-''अरे, वो अपने सक्सेना साहब हैं ना-केन्द्राध्यक्ष, अचानक बीमार पड़ गए। वैसे भी वह तो क्या कहते हैं...ब्लड प्रेशर के मरीज हैं। हमारी बात का मान रखते हुए ही यहाँ के लिए केन्द्राध्यक्ष बनकर आए थे। भले आदमी हैं-सब-कुछ आपके स्टाफ पर ही छोड़ दिया था कि नियमानुसार जो करना है, करो। सुनते हैं, कल की परीक्षा के बाद आपने उनसे कुछ कह सुन दिया था। अरे भाई ! वे बाहर केक आदमी हैं .......मेहमान हैं। आपके किसी लड़के ने कहीं नकल-वकल कर ली, तो कौन-सा पाप हो गया ? सक्सेना साहब पर दोष लगाने की क्या जरूरत थी ? अब ये नकल-वकल अकेले यहीं तो नहीं हुई....सब दूर चल रही है। लड़के पास होने के लिए ही तो पढ़ते हैं....फिर आप भी सहायक केन्द्राध्यक्ष हैं....ऐसी चीजों का ध्यान आपको भी रखना चाहिए।''
    रामरज उनके चेहरे पर ऑंखें टिकाए सुन रहे थे। प्रबांक जी कहीं और देख रहे थे। रामरज उनकी इस आदत से परिचित है कि मालिक कमजोर के मर्म पर हल्की सी चोट कर उसे लाचार बना बिल्ली और चूहे का खेल खेलते हैं।
    ''मैं ठीक कह रहा हूँ ना ?'' प्रबंधक जी रामरज की ऑंखों में झाँक उठे। रामरज समझ गए कि अब वह किसी भी क्षण उन पर कैसा भी वार कर सकते हैं।
    मालिक, पूरी बात शायद आपको पता नहीं है। केन्द्र पर हर लड़के से दो हजार की वसूली हुई है। देने वालों को नकल की छूट है। कुछ लड़के गरीब हैं...दे नहीं सकते। उन्हें दबाया और परेशान किया जाता है। उनकी उत्तर पुस्तिका खराब करने की धमकी दी जाती है। आप जानते हैं कि इतना भ्रष्टाचार मैं नहीं सह पाता-इसलिए परीक्षा के समय मैं बाहर निकलता ही नहीं। मान लेता हूँ कि ऑंखों की ओट में कुछ भी होता रहे, पर कल कुछ लड़के मेरे पास आए थे... रो रहे थे। गरीब लड़के हैं....कैसा भी सही, मैं उनका मास्टर हूँ, संस्था का प्रधान हूँ। लड़कों के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारी बनती है ना ? सक्सैना तो धाँधली मचाए है !'' रामरज ने भरसक विनम्रता के साथा सफाई दी।
    प्रबंधक जी ने नाक का बढ़ा हुआ बाल झकाा मारकर उखाड़ा और उसे चुटकी में बत्ती की तरह बँटते अपनी ऑंखें जरा चौड़ी कर दीं- आपकी संस्था में कोई बाहर से आकर क्यों धाँधली कर लेगा ?''
    ''बाहरवाला आए, तो धाँधली ही कता है, क्योंकि उसे चले जाना है।'' रामरज ने कार्य कारण का तर्क रखा।
    ''देखों शर्मा जी ! हम तो एक बात जानते हैं क वसूली सेस छूट या तो सबको मिले या किसी को नहीं। नियम सबके लिए बराबर होना चाहिए। इस साल तुमने गरीब कहकर दस छोड़े, तो अगले साल बीस खड़े हो जाएँगे। व्यवस्था ही भंग हो जाएगी। लड़कों को नकल के लिए तो केन्द्र चाहिए तो केन्द्र के लिए पैसा चाहिए। गलत काम से कोई सेंत-मेंत तो ऑंखें मूंदेगा नहीं ? हम तो यह जानते हैं कि आपको मेहमान का आदर करना चाहिए।''
    रामरज मिसमिसाकर फूट पड़ना चाहते थे। पर जानतेथे कि इससे स्थिति तो बदलेगी नही, उल्टे उन्हीं की हानि होगी। इसलिए घूँट-सा भरकर बोले- ''देखिए मालिक ! कुछ ऐसी-वैसी चींजे जब सरेआम होने लगती हैं, तो संस्था की साख गिर जाती है।''
    ''सुनो शर्मा जी ! इस तरह के भाषण 26 जनवरी और 15 अगस्त को बच्चों के सामने अच्छे लगते हैं। नेतागिरी और मास्टरी का ऐसा ही दस्तूर है, क्योंकि उन्हें सुनना है और तालियाँ बजानी हैं, फिर दो-दो लड्डू लेकर घर लौटना है। आप मास्टर लोग आधी मिठाई बच्चों में बाँटते हैं और आधी आपस में....है ना ? तो धाँधली यह भी है...हमने तो कभी आप लोगों को रोका नहीं। संस्था की साख वगैरह जो कह रहे हैं आप, वो तभी तो चढ़ेगी-गिरेगी, जब संस्था बनी रहे। संस्था को चलाए रखने के लिए आज के जमाने में हमें कैसे-कैसे निपटना, सुलझना पड़ता है-हमीं जानते हैं। आप लोग तो टहलते-टहलते स्कूल गए और घूमते-फिरते लौट आए, तनख्वाह पक्की। मैं आपको दोष नहीं दे रहा- जमाना ही ऐसा है। कुएँ में भाँग पड़ी है। मतलब यह कि कंपटीशन का जमाना है-वही दुकान चलेगी, जो ज्यादा सुविधा देगी।
    शर्मा जी कसमसाए- ''मालिक ! दुकान अच्छे माल से ज्यादा दिन चलती है।''
    मंत्री जी ने बात लपक ली- ''वही तो कहना है मेरा। बढ़िया चीज के लिए आदमी आपके पास क्यों आएगा ? अंग्रेजी स्कूलों की कोई कमी है ? तो अपना सब-कुछ छूट पर निर्भर है। देखो ! अपना कंपटीशन माल का नहीं, छूट का है। खैर, तुम्ही, मेरा मतलब, आप ही बताइए कि हमारी पहुँच के बिना चल जाएगी संस्था ? हम ग्रांट न निकालें, तो आप लोगों की तनख्वाह हो पाएगी ? मेरा कहना यही है कि सक्सेना जी हमारे काम में दखल नहीं दे रहे है, तो हमें उनके फटे में पैर क्यों फँसाना ? अभी वे ऊपर को लिख दें कि यहाँ नकल होती है, तो खत्म न हो जाएगा केन्द्र ? क्या कर लेगें आप ? और जब आप बिना केन्द्र के होंगे, तो कौन आएगा आपके पास ? ....मेरी बात समझ रहे है। ना शर्मा जी ! तो यह सक्सेना हमारे सिर पर 20-25 दिन रहेगा। इसे झेलो भाई !''
    शर्मा ने त्वरित गणित में पाया कि इस समीकरण में सिध्दान्त बराबर रोटी, रोजी और सुविधावाले अंक हैं। एक के क्रांतिकारकी गुणा या भाग से इसके परिणाम पर कोई अंतर नहीं आने वाला। अत: सम्मानपूर्वक हथियार डालने का प्रस्ताव रखना ही उचित लगा-''ठीक है, मालिक ! मैं कल से अवकाश लिये लेता हूँ।''
    मंत्री जी के चेहरे पर कुछ रौनक झलकी-''आप पढ़े-लिखे लोगों में यही तो खामी है-किसी चीज को गलत कहते हो और गलत को रोकने से भाग खड़े होते हो। सही आदमी को गलत का मुकाबला करना चाहिए ना ? ....भला बुरा जैसा भी केन्द्राध्यक्ष है, वह गया, तो उसकी गैर-हाजिरी में चार्ज उप केन्द्राध्यक्ष को ही सँभालना पड़ेगा ना ? ... मैंने उन्हें भरोसा दिलाया है कि शर्मा जी थोड़े सिध्दान्त वगैरहवाले होने से कड़े जरूर है, पर आदमी भले हैं। चोर हो या साहूकार, किसी को फँसा नहीं सकते। तभी तो सक्सेना साब केन्द्र की सरकारी रकम तक बिना रसीद और लिखा-पढ़ी के दे गए हैं आपके लिए।''
    शर्मा ने मन ही मन गाली बकी- साले, लाख की बिना लिखा-पढ़ी वाली रकम डाकार गए और कायदे की दो चार हजार वाली सौंपकरर हरिश्चंद्र हो रहे हो ! इसमें से कोई इधर उधर कर भी ले, तो दो-चार सौ से ज्यादा क्या कर लेगा ? और यही तो वह चाहते हैं कि डाके डाल मुहरें खुद समेंटे और कौड़ियों के छींटे छिड़क दूसरों को भी दागी बना संघाती कर लें। पर शर्मा करें तो क्या ...? नाक की नकेल तो इन्ही के हाथों में है....जरा भी पुट्ठे आड़े-टेड़े किए तो वह झटका लगेगाा कि नकलोहू बगरता दिखेगा।
    शर्मा को गुमसुम देख मंत्री जी अपनापे से पोता फेरा-''देखो, हम जानते हैं कि आप ईमानदार हैं। तभी तो भरोसा है हमारा कि सब सँभल जाएगा।''
    शर्मा चुप रहते हुए स्वयं को किसी आगत संगट के लिए तैयार करने लगे। मालिक जब भी कठोर से कोमल होते हैं, तब मानो भली करेंगे राम' कहकर सूली पर चढ़ाने का कोई उपक्रम होता है। यह तो स्पष्ट था कि अगले तीन प्रश्नपत्र ही कठिन हैं, जिन्हें सफलतापूर्वक निकाल लें-जाने के लिए युध्द और प्रेम की मिसाल पर हर चीज़ जायज मानी जाती है और जायज होने के चोर तर्क भी होते ही हैं, पर सबसे बड़ा तर्क लाठी के हाथ में होने का है। स्पष्ट था कि अगले कठिन मोर्चे, जिसमें साम-दाम-दंड-भेद सभी कुछ भरपूर अपनाया जाना है और इसी मुकाम पर सक्सेना दाम समेट, शर्मा को साम अथवा दंड भेद के हवाले कर गया है। इन्हीं दिनों में नकल रोकने वाले उडनदस्ते भी अधिक सक्रिय होते हैं- संचालक, संयुक्त संचालक या कहो कलेक्टर आ धमके ! उड़न दस्ते के साथ आने वाला चपरासी भी अपने को कलेक्टर से कम नहीं समझता। गरीब मास्टर क्या करे ? जो भी हो, अजगरों की इस घाटी में घुसना ही है, क्योंकि ठीक पीछे शेर गुर्रा रहा है। विनय या प्रबोध से अब कुछ होना-जाना नहीं है।
    मंत्री जी ने वास्कट की जेब से लिफाफा निकाल शमा्र की ओर बढ़ाा दिया-''यह चार्ज वाला कागज है। रकम बाबू के पास है...जब तक केन्द्राध्यक्ष नहीं लौटते, आप ही सर्वेसर्वा हैं-काला पीला कुछ भी करने के लिए। ''मंत्री जी मुस्कराए ।
    शमा्र जाल में ॅँसे कबूतर की तरह फड़फड़ाकर रह गए। ऐसी नौकरी पर लात न मार पाने की कायरताा का राग हमेशाा की तरह फिर उनके मन में बज उठा। सुबह का हौलनाक दृश्य अभी से उनकी ऑंखों के आगे था, जबकि वह पुलिस-गार्ड सहित 35-40 कर्मचारियों की सेवा-पुस्तिका और लगभग 400 परीक्षार्थियों की उत्तर-पुस्तिका पर कुछ रिमार्क लिखने के अधिकार से सम्पन्न होंगे और कुछ भी सच लिख देना उनके लिए किसी भी हद तक खतरनाक साबित हो सकता है। खुद शर्मा सहित सब जानते हैं कि वह किसी के विरू( नहीं लिख सकते...क्योंकि वह उस भीड़ के बीच होगे, जिनके पास जैसे भी हो, सुविधा पाने केक तर्क की आक्रामकता है।
    भारतीय दण्ड विधान के अनुसार बलवे में कोई एक नामजद नहीं होता और संख्या-बल के राजनीतिक नियम किसी हत्या व बलात्कार तक को उचित ठहरा सकते हैं। आक्रमण का तर्क व्यक्ति के दादे, परदादे, दसदादे या सौदादे के द्वारा कुछ कहे गए या किए गए तक से जोड़ा जा सकता है। तात्कालिक लाभ की इस चौपड़ पर शर्मा नाम की गोटी को हर हाल में पिटना है तथा पिटने के पूर्व निश्चित भविष्य के साथ, महत्वपूर्ण गोटी की ऐंठवाली विदूषक भूमिका निभाते हुए कल के दृश्य में उपस्थित होना है। दूसरी गोटियों की ऑंखों में उसके प्रतिर् ईष्या का विद्रूप उपहास होगा या करूण उपेक्षा। शर्मा स्वयंवर में जुटे धुनर्धरों के सिर के ऊपर घूमती ऐसी मछली है, जिसकी ऑंख को किसी न किसी बहाने बिधना है।
    मंत्री जी के हाथ से लिफाफा ले शर्मा खड़े हो चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गए। अपने कमरे पर पहुँच उन्होंने स्वयं को आराम कुर्सी के हवाले कर दिया। भगोना चपरासी ने पानी का गिलास लाकर दिया और स्टोव पर चाय चढ़ाने चला गया। भगोना को कागजी दाँव-पेंच की बारीकी तो नहीं मालूम, पर इतना समझ गया है कि उसके साहब को बधिया करने के ब्यूह रचे जा रहे हैं।
    उम्र में शर्मा से बड़ा होने के कारण वह समझाना भी चाहता है कि जिस पटरी पर दुनिया दौड़ रही है, तुम भी ढरको, सुबह-शाम राम का नाम लेते हुए ठकुरसुहाती पढ़ो और मजे करो, पर इनके माथे में जाने कौन-सा कीड़ा कुलबुलाता रहता है। ये कानून, ये नियम, इतना पढ़ा-लिखा होने पर भी नहीं समझते कि जिंदगी नियम-कानूनों से नहीं, व्यवहार से चलती है। भगोना कुछ नहीं कह पाता। जानता है कि साँड द्वारा रगेदे जाने की खींझ बछड़े पर उतरेगी।
    ''सुनो ! बाबू जी को बुला लाना!'' भगोना ने शर्मा का आदेश सुना।
    ''जी, फिर पूछा- कल गणित का पेपर है साब ?
    ''हाँ, क्यो ....? तुम्हें गणित में क्या दिलचस्पी है ? '' शर्मा ने थोड़ा हँसकर मन का बोझ हल्का करने की चेष्टा की।
    ''कुछ नहीं ! इसलिए कहा कि इसी पर्चे के लिए ज्यादा मारामारी होती है।''
    ''होती है, ताो होने दो। होनी को कौन टाल पाता है ? '' शर्मा ने भगोना के साथ स्वयं को भी दिलासा दिया।
    ''हाँ साब ! सो तो है।'' भगोना इस तरह सिर हला उठा, जैसे पूरा भरोसा न होने के बावजूद उसे काटने के लिए कोई सर्वकालिक तर्क न होने की दशा में इस अर्ध्दसत्य को स्वीकार करने की विवशता हो। इसी समय बाबू जी ने आकर नमस्कार किया।
    ''लो भगोना, तुम्हारे जाने की जरूरत नहीं रही। ये खुद आ गए।'' कहकर शर्मा ने बाबू को कुर्सी पर बैठने का संकेत किया।
    ''सर ! वो केन्द्राध्यक्ष कैश दे गए हैं....आप सँभाल लें...कल के लिए डयूटी-चार्ट भी तैयार करना है...किस टीचर को किस कक्ष में रखा जाए ?'' बाबू ने बैठते ही टुकड़ो-टुकड़ों में नोटशीट बोल दी।
    ''डयूटी-चार्ट तैयार तो कर लिया होगा न आपने ? शर्मा ने टटोलती नज़रों से बाबू की ओर देखा।
    ''सर ! वो कच्चा तैयार किया है .... मंत्री  जी ने कहा था कि नवावबसिंह बनवा देगें, सो उनके साथ बैठकर....फाइनल तो आप ही करेंगे। दस्तखत आपका होना है।'' बाबू ने कैफियत बताई।
    नवाबसिंह का नाम और सूरत आते ही शर्मा की नस तड़क उठी। इस आदमी की आचार-संहिता में कुछ भी अकरणीय नहीं है, बशर्ते किसी दूसरे को हानि हो। स्वयं मंत्री जी को यह बहुत शातिर ढंग से धोखा दे चुका है। उस समय मालिक इसे संस्था से निकालने पर आमादा थे और शर्मा ने इसे बाल-बच्चों का हवाला देकर बचाया था, क्योंकि एक गुण तो मालिक में है कि जो उनकी प्रजा में शुमार हो, मुँह में तिनका दाब ले, उसकी जान बख्श देते हैं।
    ''सर ! कल वैसे भी मुसीबत वाला पेपर है। लड़के मानेंगे नहीं।'' बाबू जी की आवाज़ में बाढ़ में उफनती नदी तैरकर पार करने की बाध्यता जैसी घबराहटल थी।
    ''आप तो अपना रिकॉर्ड टन्न रखिए....बस !''
    ''साब ! लड़के बेइज्जती कर सकते हैं, आपकी....और....''
    शर्मा कुर्सी पर सीधे हुए-''देखो बाबू जी ! मैं एक परिणाम पर पहुँचा हूँ कि मास्टर एक निरीह नौकर है। उसे इज्जत-विज्जत जैसी भारी चीजों का बोझ अपने कंधों पर नहीं लादना चाहिए। वह थानेदार नहीं है कि डंडा, कानून और शरीर के जोर पर इज्जत को खाद-पानी देता रहे। यह मान लो कि हम नौकरी कर रहे हैं। मालिक को राम मानो और जैसे वह चाहें, वैसे रह लो। इस बीच क्या ऑंधी-तूफान आता है...देखते हैं।'' शर्मा ने मुस्कराहटल से वातावरण हल्का बनाने का प्रयास किया।
    बाबू फिर भी आश्वस्त नहीं हुआ-''दिक्कत यह है साब कि स्टाफ खुद नकल कराता है। कुछ लड़के स्टाफवालों के हैं, कुछ कार्यकारिणी वालों के। वो पुलिस-जीप में आनेवाला डिप्टी का लड़का है ना ! कल के लिए उसने गणित वाले शर्मा जी को सूट का कपड़ा दिया है।''
    ''ठीक है यार !....कल की कल देंखेगे। खामखा अभी से मगजमारी क्यों करें ? कैश अपने पास ही रखिए। भुगतान कैसा भी हो, रसीद जरूर लगाते चलना।''
    बाबू के जाने के बाद रेडियो खोलकर शर्मा जाने क्या-क्या सोचते रहे। दूध पीकर सोने की किश्तवार कोशिश करते हुए रात काटी और सुबह नित्यप्रति के अनुसार नहा-धोकर विद्यालय पहुँच, नाक की सीध चलते हुए अपने कार्यालय में घुस गए।
    पर्यवेक्षणवाले लगभग सभी शिक्षक उपस्थित थे। डयूटी-चार्ट पर निगाह डालते हुए शर्मा ने आवाज5 में अतिरिकत कड़क भरकर पूछा-''आप लोगों ने अपने-अपने कक्ष नोट कर लिये ?''
    ''हाँ, के संकेत में सब के सिर हिलने पर शर्मा की घूमती दृष्टि गणित वाले शर्मा के ऊपर जा टिकी-''आपकी डयूटी आठ नबर में है ?''
    ''जी सर !'' उत्तर मिला।
    डयूटी-चार्ट पर लाल स्याही का गोल घेरा बनाते हुए शर्मा बुदबुदाए-''आठ नंबर में हिन्दीवाले वाले कुशवाह जी रहेंगे और फील्ड डयूटी पर। किसी परीक्षार्थी को प्रश्न समझने में कोई कठिनाई आती है, तो आप ही समझा सकेंगे। हम लोगों में कोई और तो मैथेमेटिक्स जानता नहीं है, सो आप यह ध्यान रखें कि किसी लड़के को कोई शिकायत न हो।''
    शर्मा को कुछ भी समझ में न आया  कि शिकायत न होने का क्या मतलब है ? आठ नंबर में उसकी भूमिका पहले से तय थी। उसने विरोध किया-''आठ नंबर कमरे में डयूटी के िलिए मुझसे मंत्री जी ने कहा है। उसमें वी0आई0पी0 स्टूडैंट्स के रोल नम्बर है।'' गणित वाले शर्मा के स्वर में प्रच्छन्न धमकी थी।
    ''वी0आई0पी0 से आपका क्या मतलब है ?'' शर्मा ने डाँट के अंदाज में पूछा।
    गणित शर्मा दबक तो गए, पर अपने साथी शिक्षकों के चेहरे पढ़ते हुए ''साझा कार्यक्रम'' पर सहमति के प्रस्ताव की तरह कहा- ''सर ! आप बेकार ही उठा-पटक कर रहे हैं। इस तरह नकल नहीं रूकी यहाँ पर। बुरी लेगे या भली, मैं तो साफ-साफ कहता हूँ कि आप दिखावा कुछ भी करते रहे, करना आपको वही पड़ेगा, जो मंत्री जी चाहेंगे। आप उनके विरूध्द नहीं रह सकते।''
    गणित शर्मा ने चुनौती फेंककर अपने प्रधान का आंतकिर भय सरे आम करवा दिया था। वह दो दिन के लिए केन्द्र का हीरो था। प्रश्न-पत्र हल करने का पूरा दारोमदार गणित शर्मा और फिजिक्स वाले अस्थाना पर ही था। शेष शिक्षक पर्चियों को इधर-उधर करने के अतिरिक्त गणित के मामले में अधिकांश लड़कों की तरह बुध्दू थे। इस दूर-दराज जगह पर अन्य किसी गणितज्ञ की इतनी शीघ्र व्यवस्था संभव न थी। स्टाफ के लोग तमाशे की प्रतीक्षा में थे कि प्राचार्य रामरज शर्मा अपनी खाल किस तरह बचाते हैं।
    शर्मा ने न गंभीरता कम की, न अपना पारा नीचा-किया-''किस बेवकूफ ने आपसे कह दिया कि मैं मंत्री के विरूध्द हूँ ? मैं उन्हें आपसे ज्यादा जानता हूँ, समझे ? मंत्री जी की इच्छा है कि लड़को को सुविधा मिले....सो मिलनी चाहिए....बस। आप गणितवाले हैं....जिम्मेदारी आपकी है कि कोई लड़का शिकायत न कर पाए।
    हवा में उड़ते गणित शर्मा पिचकते हुए नीचे की ओर आने लगे-''देखिए साब ! इन गोल-मोल बातों में हमें लेना-देना नहीं है। हमें तो साफ-साफ बताइए कि आज नकल होनी है या नहीं ? और तीन सौ लड़को को मैं अकेले कैसे सँभाल पाऊँगा ?''
    ''कम से कम सो यानी तीन कमरे अस्थाना जी की जिम्मेदारी में भी रहने चहिएँ।'' अबकी बार रामरज शर्मा ने गणित शर्मा को बुरी तरह झिड़क दिया-''आपको मालूम है कि अस्थाना जी का प्रमोशन डयू है। जरा-सा रिमार्क उनके कैरियर को चौपट कर सकता है। मैं इस वर्ष उन्हें दंद-फंद से दूर रखना चाहता हूँ, ताकि....खैर, स्वयं अस्थाना जी तुम्हें सहयोग करें, तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है ? रामरज शर्मा ने अस्थाना की ओर देखा।
    प्रमोशन अस्थाना की दुखती रग थी और वह इस-उस से कई बार चर्चा कर चुके थे कि अपने ही स्वार्थ के  लिए लड़ना आदमी को शोभा नहीं देता। अत: उनके प्रमोशन के लिए प्राचार्य यानी रामरज शर्मा को मंत्री से भिड़ना चाहिए, जो कि वह नहीं भिड़ते....जो कि उनकी कायरता है। अस्थाना ने रामरज शर्मा के चेहरे को निगाहों की कसौटी पर कसने का प्रयास किया, पर इतना समय नहीं था। अत: प्रत्युत्पन्नमति के प्रकाश में समीकरण्ा रख, स्वर की यथासंभव दीनता से बोल-''सर- ! मैं तो इन दिनों के लफड़े से बचने के लिए अवकाश लेना चाहता था.... आपने ही स्वीकृत नहीं किया। नकल वगैरह या किसी भी बेईमानी को मेरी आत्मा स्वीकार नहीं कर पाती। मैं तो आज ही ''मेडीकल लीव'' लेने के लिए तैयार हूँ।''
    निशाना सही था। रामरज आश्वस्त हुए, पर उन्होंने अपनी कड़क और गंभीरताा की लाइन ऐंड लेंग्थ बनाए रखकर कहा- ''नहीं ! आपको अपने दायित्व का निर्वाह करना ही है। आप काम कीजिए....इस तरह की दीन भी सलामत रहे और दुनिया भी खुश । हम सबको इसी तरह अपनी छोटी-बड़ी  हैसियत बनाए-बनाए रखनी है।''
    इसी बीच बाबू जी आ खड़े हुए-''सर, थाने से पेपर लेने कौन जाएगा ? दीवान जी तैयार खड़े हैं। आने-जाने में आधा घंटा लगेगा...जबकि पहली घंटी का समय हो गया है।''
    रामरज शर्मा हड़बड़ाकर खड़े हो गए-''अरे ! फिर तो देर हो गई। किसे भेजना है ? लाओ, अधिकार-परत्र पर हस्ताक्षर कर दूँ।''
    ''आप नाम बताएँ, तभी तो तैयार होगा !'' बाबू ने झल्लाहट प्रकट की।
    शर्मा पुन: उसी कुर्सी पर बैठ गए-''उफ ! दस मिनिट और गए इस लिखा-पढ़ी में। लाओ मैं ही लिख देता हूँ...और अस्थाना जी, आप चले जाइए। एक सिपाही और लेना। आपके कक्ष में साथ वाले मास्टर जी बाँट लेंगे उत्तर-पुस्तिकाएँ....ठीक ?''
    अस्थाना से ''जैसा आप कहें' सुनते हुए रामरज शर्मा अधिकार-पत्र लिखने में लग गए और कक्ष-प्रवेश की घंटी बजवा दी।
    ''नमस्कार शर्मा जी !''
    शर्मा ने देखा कि बलवीरसिंह हैं। बलवीरसिंह लंबी-चौड़ी कद-काठी वाले, इसी गाँव के सम्पन्न परिवार से जुड़े शिक्षक हैं। उनका विद्यालय शहर में है, किन्तु परीक्षा-कार्य में सहयोग करने का आदेश लेकर इन दिनों गाँव आ जाते हैं और फसल-कटाई, खलिहान आदि की साज-सँभार कर लेते हैं। खानदानी प्रभाव तथा नकल कराने में मुक्त सहयोग की वजह से वे इन दिनों छात्रों में खासे लोकप्रिय रहते हैं-''आज की क्या व्यवस्था है साब ? सुना है, सक्सेना साब यहाँ का घी पचा नहीं पाए...बीमार हो गए हैं ?'' बलवीरसिंह ने चुटकी लेते हुए पूछा।
    सीनाजोरी वाले अधिकार के साथ चोरी करवाने वाले बलवीरसिंह की उपस्थिति में शर्मा सुलग उठते हैं। उन्हें केन्द्र के आसपास भी नहीं देखना चाहते, पर विवशता है। किसी प्रकार कुछ भी तो नहीं बिगाड़ सकते बलवीरसिंह का। उल्टे बलवीर ही चाहें तो उनकी शिकायत करवा दें, धुनवा दें....चाहे तो स्वयं धुन दें। शर्मा पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने यह बात उड़ाई है कि ''चूँकि शर्मा ब्राह्मण हैं और यहाँ 85 प्रतिशत छात्र हरिजन तथा पिछड़े वर्ग के हैं, अत: शर्मा नहीं चाहता कि लड़केर् उत्तीण होकर आगे बढ़े।'' अगड़ा-पिछड़ा वाला हथियार इन दिनों ऐसा प्रभावी हुआ है कि शर्मा स्वयं को उस घिरे हुए भयभीत कुत्तो की भाँति अनुभव करते हैं, जाो अपने समाजवादी सिध्दान्तों की दुम पिछली टाँगों के बीच लेकर, पेट से चिपका, दाँत दिखा खोखियाताा हुआ किसी तरह बच भागने का अवसर ढँढता है। उसके चारों ओर तनी हुई पूँछों का गुर्राता हुआ झुंड होता है।
    ''आज हमसे कहाँ सेवा लेंगे श्रीमान् ?'' शर्मा ने बलवीर की आवाज़ सुनी।
    दबी हुई पूँछ में कुछ ऐंठन भरकर शर्मा बोले-''आपके लिए दसों दिशाऐं खुली हैं, ठाकुर साहब !''
    चौड़े हुँह की हँसी के साथ बलवीरसिंह ने वार किया-महाराज ठाकुर बोले या चमार, सब लीला आपकी है / यह गाँव ठाकुरों का है, स्कूल ठाकुरो का है, फिर भी प्रिसिंपल आप हैं। ठाकुरों में दिमाग कहाँ होता है ?''
    बलवीर के व्यंग्य से शर्मा का ब्राह्मण चोटिल हुआ, ठाकुर साहब ! दिमाग को तो लट्ठ के सामने हाथ बाँधकर खड़ा रहना पड़ता है। जमीन आपकी लाठी-बंदूकें आपके पास। राजा, साहूकार सब आप ही तो हैं ! सोने पे सुहागा के कि आप सिर्फर ठाकुर नहीं रहे...मंडल ठाकुर बन गए हैं। सो पशु सहित बड़ नाम तुम्हारा। हमारी बुध्दि तो आपका झाड़ू-पोंछा करनेवाली एलची है साहब !''
    ''हाँ साब ! एलची तो कमिश्नर, कलेक्टर भी है, जिनके हाथ में हुकूमत है। सब पदों पर पंडित एलची-पचासी पर पंद्रह की हुकूमत । खैर, छोड़िए, बुरा लग रहा है आपको। आप तो आज की व्यवस्था के बारे में हुकुम कीजिए।'' बलवीर उपहास के भाव में आ गए।
    शर्मा ने फैली-बिगड़ी व्यवस्था का गोलमाल खुलासा किया-''व्यवस्था वही है, जो चली आ रही है। सक्सेना जी किनारे हाो गए, तो शर्मा जी रखवाली पर आ गए। लठैत रगेद रहे हैं...भैंस हाँफ रही है।''
    बाबू जी आ गए- ''घंटा बजवाऊँ साब ?''
    ''प्रश्नपत्र आ जाने दो, तभी बजवाना। थोड़ी-बहुत देर से अपने देश में क्या अंतर पड़ता है ? काँपी वगैरह का रिकॉड देख लो। नोटिस चिपकवा दो कि जो कोई अनुचित       साधनों का प्रयोग करते पाया जाएगा, उसे छोड़ा नहीं जाएगा। सब काम शांतिपूर्वक अंदर ही होना चाहिए। आइए, मैं समझाता हूँ।'' शर्मा जी बाबू के साथ बाहर निकल लिये।
    प्रश्न-पत्र आने, खुलने और वितरण की औपचारिकताओं में आधा घंटा जाया हुआ। फिर भी आज की सजा के ढाई घंटे शेष थे। शर्मा जी मैदान के बीच पड़ी कुर्सी पर आ बैठे। केन्द्र के आसपास भाईयो, चाचाओं, पिताओं, मित्रों व भिन्न-भिन्न प्रकार के संबंधियों की भीड़ जुट चुकी थी। पीछे की खिड़कियों, रोशनदानों से प्रश्नपत्र का सामना करने के प्रचुर साधनों की झोंक शीतयुध्द की तरह गति पकड़ रही थी। लोगों में जाने कैसे यह बात फैल गई कि शर्मा अनुचित साधनों के लिए सहमत हैं, पर यह अंदर और चुपचाप चलना चाहिए। बाहर के बवंडर से वह डरता है। केन्द्र के कक्षों में फुसफुसाहट-भीर लूट का आलम हो गया। कोई कुंजी, किताब भीतर पहुँचते ही पुर्जे-पुर्जे हो बँट जाती।
    घंटा-बजा- यानी एक-तिहाई समय समाप्त हो गया। अधिकांश कॉपियाँ खाली रहीं, कोरी की कोरी। बिना श्रम किए पा जाने के भरोसे परीक्षाा के लिए कोई तैयार ही नहीं की गई थी। सही उत्तारवाले पृष्ठ सामने थे, पर उनका लाभ उठाए, जाने का कौशल नहीं था। उन्हें तो बना-बनाया चाहिए था- शुरू से अंत तक।
    परीक्षा-कक्षों की बेचैनी, व्याकुलता, हड़बड़ी तथा शोरगुल को अनदेखा, अनसुना करते केन्द्राध्यक्ष शर्मा कुर्सी पर गुमसुम बैठे थे। कभी-कभी ऑंखें बंद कर पीछे सिर टिका लेते, तो सोए-से दिखते । कभी बैठे-बैठे सारस की तरह सिर घुमा आसपास का जायजा ले लेते। वह केवल समय पूरा करना चाहते थे। गणित शर्मा को उन्होंने पास बिठा रखा था।
    फट-फट फटक, फटक फट फट की दनदनाती आवाज़ के साथ प्रवेश द्वार पर वजनी एन्फील्ड़ मोटर-साईकिल चमकी और मैदान में अपनी भरपूर आवाज़ घोषित करती हुई       सीधे कार्यालय के सामने जाकर रूकी। केन्द्र तथा केन्द्राध्यक्ष की सरेआम अवहेलना से रामरज शर्मा रोष से भर उठे, किंतु यह इलाके का थानेदार था जिसे संस्था के मंत्री भी मान देते हैं। कमर में पिस्तौल लटकाए थानेदार के पीछे मार्क थ्री से सज्जित प्रधान आरक्षक था। दोनों को सिंह-ध्वनि के साथ कार्यालय में प्रवेश करते और तुरन्त निकलते देखते रहे शर्मा। थानेदार गलियारे में टहलने लगा। उसकी अजब-सी ऐंठ शर्मा को खल रही थी। बिना केन्द्राध्यक्ष की अनुमति के थानेदार को भीतर घुसने का कोई अधिकार नहीं था, पर अधिकार उसकी कमर सेस लटका था और वही सच था। शर्मा ने ऑंखे बंद कर लीं।
    ''सर ! अभी तक कुछ नहीं हो पाया....मास्टर साब, प्लीज !'' कोई लड़का शायद गणित शर्मा से कहा रहा था।
    '' मैं क्या करूँ ? इनसेस कहो ना-प्रिंसिपल साब से......''
    गणित शमा्र की झुँझलाई आवाज़ पर रामरज शर्मा ने ऑंखें खोलीं। गणित शर्मा की बगल में केन्द्र का सुपरिचित चेहरा अर्थात् डिप्टी साहब का पुत्र खड़ा था। केन्द्राध्यक्ष द्वारा घूरकर देखें जाने पर लड़के ने स्वर में थोड़ी विनय भरी-''सर, बहुत टफ पेपर है।''
    लड़के के हाथ में प्रश्नपत्र और उत्तरपुस्तिका भी थी जो वह साथ में नहीं ला सकता था।  तीन-चार लड़के भी उस कक्ष से बाहर निकल आए थे। आगे घटने वाले दृश्य के प्रति उत्सुकता से भरे शिक्षक दरवाज़ों पर खड़े हो गए थें।
    ''तो ...? '' शर्मा ने सहजता बनाए रखकर डिप्टी-सुत से पूछा।
    ''सर ! हमें हेल्प चाहिए। ऐसी ही परीक्षा देनी होती, तो कहीं भी चले जाते, यहाँ धूल क्यों फाँकते।
    ''क्या यहाँ किसी ने पढ़ने-लिखने से तुम्हें रोका ?'' शर्मा ने पूछा।
    ''कह दूँ, तो बुरा लगेगा आपको ....साफ है कि आप नहीं चाहते कि हम लोग परीक्षा मेंर् उत्तीण हों और आगे बढ़े। देखिरए सर ! मैं साफ कहे देता हूँ कि आप हमें रोक नहीं सकते। राजी से हो, तो अच्छा....वरना हम -गैर राजी करेंगे। एक बात समझ लीजिए सर ! अगर भम्भड़ शुरू हो गया तो .............? लड़का उत्तेजित हो उठा था-''हमारा क्या है ? हम तो फेल होते रहे हैं.........ओर हो लेगें, पर आपके लिए बहुत मुश्किल हो जाएगी।'' लड़के ने झुंड का प्रतिनिधि बनकर शर्मा के आगे आदि से अंत की चेतावनी टाँग दी।
    पल-पल कर समय काटते शर्मा अंदर से सिहर गए-''देखो भाई ! तुम जो सोचते हो गलत है। मैं तुम्हारा या दूसरों का शत्रु नहीं हूँ। मुझे केन्द्र का संचालन करना है। व्यवस्था बनाए रखनी है। उसके कुछ नियम हैं....समझे ?''
    ''हम नियम तोड़ने की कब कह रहे हैं ? थोड़ा सहयोग चाहते हैं ....जरा-सी छूट।'' वह अड़ गया था।
    ''छूट की तो कोई सीमा नहीं होती। आगे वह मनमानी हो जाती है।''
    शर्मा द्वारा समझाने के लिए प्रयोग किए जा रहे इस समय में छात्रों व शिक्षकों का एक छोटा-मोटा झुंड आसपास सिमट आया था। आतुर व अनजान लड़के जरा-से उकसावे पर हमला बोल सकते थे। शर्मा ने चिंतामग्न हो अपना माथा रगड़कर कहा, ''इतनी छूट तो तुम्हें दे ही रखी है कि बना हो-हल्ला, जो करना है, करो।''
    ''इतने से काम नहीं चल रहा है। हमें तो सिरे से हल किया हुआ चाहिए।'' कोई भीड़ से बोला।
    शर्मा ने झुंड पर निगाह फेंकी। शायद सब वही चाहते थे कि चाहे जैसेस हो, बिना श्रम किए तुरत परिणाम मिले।
    ''चलो, यही मान लिया जाए, तो हमारे पास इतने लोग कहाँ हैं कि सबके हिस्से में हल पहुँच सके ? अकेले ये शर्मा जी हैं....पैसे और दादागिरीवाले इन्हें कब्जे में लेकर लाभ उठा लेंगे। आप लोगों में गरीब और  कमजोर भी तो हैं, जो ऊधम नहीं मचा सकते, लड़-भिड़ नहीं सकते। मगर मैं तुम्हें रोकूँगा नहीं.............क्योंकि तुम मानने वाले नहीं इस समय। ये हैं गणित वाले...इनसे जो चाहे, जैसे चाहो, करवा लो। अगर कुछ हो जाए, तो मैं जिम्मेदार नहीं....ध्यान रहे कि यहाँ से बाहर भी इस केन्द्र को देखने-परखने वाले हैं, और उनके हाथों में हम सबको बनाने-बिगाड़ने की शक्ति है.....''कहकर शर्मा मैदान से उठ भीतर की ओर चले गए।
    उनके जाते ही गणित शर्मा की खींचातानी होने लगी। पहले लाभ उठाने के लिए लड़क उन्हें अपने-अपने कक्ष की ओर खींचने लगे। गणित शर्मा कोई सुझाव देने की कोशिश कर रहा थां पर ''लूट सके, तो लूट' के हल्ले में गणित शर्मा द्वारा दी जा रही व्यवस्था की भी कोई सुनवाई न थी। व्यक्तिगत लाभ,र् ईष्या तथा मनभावन बातों के माध्यम से लोकप्रिय बनकर इच्छाएँ सुलगाने में उसका भी हाथ था और इस समय वह अपने ही द्वारा हवा दी गई लपटों से घिर गया था। खींचातानी बेहूदगी में बदलने से परेशान गणित शर्मा गला फाड़कर चिल्लाया-''अगर तुम लोग मेरी बात नहीं सुनते, तो मैं किसी का कोई प्रश्न हल नहीं कर पाऊँगा....नहीं करूँगा।''
    लड़के अचानक झम्म हो गए। अंदर डरे-दुबे से रामरज शर्मा सुन रहे थे कि परीक्षा-कक्षों का हल्ला बीच मैदान में पहुँच गया है। बाबू ने सूचना दी कि स्थिति खराब हो गई है।
    ''दरोगा कहाँ है ?'' शर्मा ने पूंछा।
    ''वह गार्डरूम में चाय पी रहा है।'' कहकर बाबू खिड़की से बाहर झाँकते हुए ऑंखों-देखा हाल सुनाने लगा-''सर, गणित शर्मा का हाल बेहाल है। जो लड़के अभी तक शांत से भीतर थे, वे भी भम्भड़बाजों में शामिल हो रहे हैं.....कुछ हैं, जो दूर ऊँचे-नीचे स्थानों से तमाशा देख रहे हैं....प्रश्नपत्र, काँपियाँ फाड़कर उछाली जाने लगी हैं।, सर !''
    अब रामरज शर्मा को न रोक सके और कुर्सी से उठ, तेजी से बाहर की ओर लपके कि बाबू ने बाजू से थाम लिया।
    ''कहाँ जहा रहे हैं सर ? लड़के पगलाए हुए हैं- कुछ भी कर सकते हैं । वे आपसे पहले ही रूष्ट हैं।''
    रामरज दयनीय हो उठे-''कुछ तो करना पड़ेगा बाबूजी ! किसी को तो यह बाढ़ रोकने की जोखिम उठानी होगी....नहीं तो अपनी डूब में वह सब-कुछ ले लेगी।''
    ''आप अकेले क्या कर लेंगे ?'' कहता हआ बाबू उन्हें बलपूर्वक भीतर घसीट ले गया और उसके संकेत पर चौकीदार ने साँकल चढ़ा दी।
    द्वार के किवाड़ों पर पत्थरों के साथ नारे बजने लगे- ''प्रिंसीपल मुर्दाबाद !....खूसट शर्मा, हाय-हाय ! ....हरिश्चंद्र की औलाद, बाहर निकल ! जो हमसे टकराएगा, मिट्टी में मिल जाएगा ! हम अपना अधिकार माँगते, नहीं किसी से भीख माँगते।''
    उत्तेजना व अवशता से रामरज शर्मा की छाती में हूक-सी उठी। वह पीड़ा से बिलबिला उठे। बाहर नारों तथा हुड़दंग का दौर जारी था। संस्था के दरवाजे-खिड़कियाँ तरह-तरह के आघातों से हिलकर अपनी जगह छोड़ने लगे थे। वे कहीं से भी टूट-उखड़ सकते थे।
    चेहरे की ऐंठन को काबू में करते शर्मा बोले, ''वे इमारत की तोड़-फोड़ कर रहे हैं, बाबूजी ! और रो पड़े।
    बाबू बेहद घबरा गया। बाहर की मारामारी में उपचार की व्यवस्ािा कैसे करे ? शर्मा अब छटपटाने लगे थे। बाहर एक बार फिर जोर का शोर हआ। उसी में दस्ता आ जाने की सूचना मिली, तो रामरज शमा्र को फर्श पर लिटा बाबू ने द्वार खोला। मैदान में हथियारबंद पुलिस के कुछ सिपाही लड़कों को खदेड़ रहे थे। निरोधी दस्ता पर्याप्त रक्षकों के साथ आया था। इसलिए चंद क्षणों में केन्द्र को अपने कब्जे में ले लिया।
    कार्यालय में घुसते एक चुस्त-दुरूस्त वर्दीधारी ने पूछा-''केन्द्राध्यक्ष कहाँ हैं ?''
    बाबू ने फर्श पर पसरे पसीने से तरबतर आदमी की ओर संकेत कर दिया। जूट के फर्श पर चित्ता पड़े शर्मा की धौंकनी चल रही थी-ऑंखें छत की ओर तनी थीं। रूक-रूकर ऐसी कराह निकलती, जैसे कहीं शूल चुभ रहा हो।
    ''जब इनमें कुव्वत नहीं थी, तो केन्द्राध्यक्ष क्यों बने ?'' अधिकारी ने भुनभुनाते हुए प्रश्न दागा।
    ''खुद नहीं बनते। इन्हें बना दिया गया है।'' बाबू ने स्थिति स्पष्ट की।
    ''ठीक है-इन्हें आहिस्ताा से उठवाकर मेरी गाड़ी में रखवाओं । लगकता है, दिल का दौरा पड़ा है। '' फिर बाबू झुककर रामरज शर्मा के कान में कहने लगा-''केन्द्र को फोर्स ने अपनी सुरक्षा में ले लिया है- थोड़ी हिम्मत बाँधिए....देखिए, सब ठीक हो जाएगा। हम आपको अस्पताल पहुँचा रहें हैं....खतरे की कोई बात नहीं है।''
    रामरज शर्मा के होंठ थरथराए। अधिकारी का संकेत पा उन्हें हाथों पर उठा लिया गया।
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